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________________ जल्दी मत करो। स्वाभाविक बात अच्छी होती है : तुम स्वाभाविक बने रहो। जब तक कि तुम स्वभाव के पार नहीं चले जाते, लड़ना मत प्रकृति के साथ। उच्चतर को आते रहने देना। और यही है मेरा दृष्टिकोण हर चीज के प्रति : निम्नतर के साथ संघर्ष मत करो, उच्चतर के लिए प्रार्थना करो। उच्चतर के लिए कार्य करो और निम्नतर को अनछुआ ही छोड़ दो। यदि तुम निम्न के साथ लड़ना शुरू कर देते हो तो तुम्हें वहीं रहना होगा निम्न के साथ; तुम वहां से सरक नहीं स्वाभाविक हो जाओ ताकि प्रकृति तुम्हें अड़चन न दे और तुम अलग छोड़ दिए जाओ ज्यादा ऊंचे उठने को। उच्चतर के लिए प्रार्थना करना, उच्चतर के लिए ध्यान करना, उच्चतर के लिए प्रयत्न करना और प्रकृति को उसी तरह छोड़ देना जैसी कि वह होती है। जल्दी ही पराप्रकृति उदित होगी। प्रकृति में से आती पराप्रकृति, और फिर वहां होता है प्रसाद, फिर वहा होता है सौंदर्य, तब वहा होती है अपार धन्यता। तुम्हारे लिए अच्छा होगा एक और दूसरे आयाम से इसे समझना कामवासना संबंध रखती है शरीर से, प्रेम संबंधित होता है सूक्ष्म शरीर से, प्रार्थना संबंध रखती है केंद्र से, एकदम तुम्हारी सत्ता के मूल से ही। कामवासना का संबंध होता है परिधि से, प्रार्थना जुड़ी होती है केंद्र से, और केंद्र तथा परिधि के बीच है प्रेम। बुद्ध प्रार्थनामयी करुणा हैं, वे पहुंच चुके केंद्र तक। इससे पहले कि तुम केंद्र तक पहुंचो, जब तुम परिधि और केंद्र के बीच गति कर रहे हो, तब तुम प्रेमपूर्ण हो –बहुत ज्यादा गहरे रूप से प्रेममय। परिधि पर तुम कामपूर्ण रहोगे, तुम कामवासना युक्त रहोगे। और यह वही ऊर्जा होती है। परिधि पर कामवासना एक जरूरत होती है, परिधि और केंद्र के बीच प्रेम होता है एक जरूरत। ऊर्जा वही होती है लेकिन तुम बदल चुके होते हो, अत: आवश्यकता बदलती है। केंद्र पर प्रार्थना, करुणा है आवश्यकता, ऊर्जा वही होती है। तो बुद्ध को भूख नहीं कामवासना की, वही ऊर्जा करुणा बन चुकी है। प्रेम से भरा व्यक्ति कामवासना का भूखा नहीं होता है, वही ऊर्जा प्रेम बन चुकी होती है। इसलिए आवश्यकताओं के विषय को समझ लेना है। आवश्यकता अस्तित्व रखती है शरीर में, लेकिन यदि तुम सरकते हो शरीर से ज्यादा गहरे में, तो आवश्यकता बदल जाती है। आवश्यकता तुम्हारा ही पीछा करती है। यदि तुम बहुत ज्यादा भरे हुए होते हो कामयुक्त प्रतिछवियों से, कल्पनाओं से, तो यह बात केवल यही दर्शाती है कि तुम जीते हो परिधि पर। सरको वहां से। तुम परिधि पर ही कार्य किए जाते हो! लाखों जन्मों से तुम वही कार्य कर रहे हो और आवश्यकता पूरी नहीं हुई है। वह पूरी हो नहीं सकती है। कोई जरूरत नहीं हो सकती है -इस बात को याद रखना। तुम खाते हो, आठ घंटे, छ: घंटे बाद तुम्हें फिर भूख लगती है। कोई जरूरत पूरी नहीं हो सकती है। वह तो एक अस्थायी परिपूर्ति होती है। तुम संभोग करते हो, कुछ घंटों बाद तुम फिर तैयार हो जाते हो। आवश्यकताएं पूरी हो नहीं सकती, क्योंकि वे एक चक्र में घूमती हैं। तुम्हारी आवश्यकताओं से ज्यादा ऊंचे सरको। मैं नहीं कह रहा कि आवश्यकताओं से लड़ो; आने दो उन्हें; आनंदित होओ उनसे जब कि तुम वहां हो। लड़ना क्यों?-आनंद मनाओ उसका जब तुम उसमें
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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