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________________ तुम्हें समझ लेना है कि तुम्हारे प्रेम में तुम्हें वहां मौजूद नहीं होना चाहिए। प्रेम मौजूद होना चाहिए, लेकिन बिना किसी अहंकार के। तुम चलो, तो चलने वाला वहां न हो। तुम करो भोजन, लेकिन भोजन करने वाला न हो वहां। जो कुछ जरूरी है तुम्हें करना होगा, लेकिन कोई कर्ता न रहे वहां। यही होता है संपूर्ण अनुशासन। यही है धर्म का एकमात्र अनुशासन। धार्मिक व्यक्ति वह नहीं होता जो किसी एक धर्म से संबंधित होता है। वस्तुत: धार्मिक व्यक्ति किसी एक धर्म से संबंध नहीं रखता है। धार्मिक व्यक्ति वह व्यक्ति है जिसने गिरा दिया है कर्ता को, जो जीता है स्वाभाविक रूप से, और बस अस्तित्व रखता है। तब प्रेम की एक अलग ही गुणवत्ता होती है-वह आधिपत्य जमाने वाला नहीं होता, वह ईर्ष्यापूर्ण नहीं होता। वह मात्र देता है। कोई सौदा नहीं होता, तुम उसमें अदला-बदली नहीं करते। वह कोई वस्तु नहीं होता, वह एक छलकता हुआ उमडाव होता है तुम्हारे अस्तित्व का। तुम बांटते हो उसे। वस्तुत:, अस्तित्व की उस अवस्था में जहां कि अस्तित्व प्रेम का होता है, प्रेमी का नहीं, तो ऐसा नहीं होता कि तुम किसी एक के प्रेम में पड़ते हो और किसी दूसरे के प्रेम में नहीं होते, तुम प्रेम मात्र में होते हो। यह विषय-वस्तुओं का सवाल नहीं होता। यह ऐसे है जैसे श्वास लेना। किसके साथ श्वास लेते हो? तुम तो मात्र श्वास लेते हो। कौन होता है तुम्हारे साथ बात इसकी नहीं। यह तो बिलकुल ऐसे होता है : तुम किसके प्रेम में पड़ते हो यह बात असंबंधित हो जाती है, तुम बस प्रेम में होते हो-जो कोई भी हो तुम्हारे साथ। या, चाहे कोई भी न हो तुम्हारे साथ। शायद तुम खाली घर में बैठे हुए होओगे, तो भी प्रेम प्रवाहित हो रहा होता है। अब प्रेम कोई क्रिया नहीं, यह तुम्हारा अस्तित्व है। तुम उसे उतार-पहन नहीं कर सकते हो-यह तुम ही होते हो। यही है विरोधाभास। जब तुम तिरोहित हो जाते हो तब तुम होते हो प्रेम; जब तुम नहीं होते हो, तब केवल प्रेम होता है। अंततः, तुम संपूर्णतया भूल जाते हो प्रेम को, क्योंकि है कौन वहां उसे याद करने को? तो प्रेम एक फूल की भांति है जो खिलता है, वह सूर्य है जो उदित होता है, सितारों की भांति है जो रात का आकाश भर देते है-वह तो बस घटता है। यदि तुम एक चट्टान का भी स्पर्श करते हो, तो तुम प्रेम पूर्वक स्पर्श करते हो उसे। वह बन चुका होता है तुम्हारा अस्तित्व। यही अर्थ है जीसस के इस कथन का, ' अपने शत्रुओं से प्रेम करो। ' सवाल शत्रुओं से प्रेम करने का नहीं है, बात है कि स्वयं ही बन जाना प्रेम। तब तुम कुछ और कर नहीं सकते। चाहे शत्रु भी आ जाये, तुम्हें प्रेम ही करना पड़ता है। कुछ और करने को होता नहीं है। घृणा इतनी मूढ़ता भरी बात है कि वह अस्तित्व रख सकती है केवल अहंकार के साथ। घृणा एक मूढ़ता होती है क्योंकि तुम दूसरे को नुकसान पहुंचा रहे होते हो। और दूसरे से ज्यादा नुकसान तो स्वयं अपने को पहुंचा रहे होते हो। यह मूढ़ता है, क्योंकि वह सारा नुकसान जो तुम पहुंचाते हो, वापस आ पहुंचेगा तुम तक ही। और
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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