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________________ बहुत बार ऐसा होता है कि कोई चीज घटती है ठीक तुम्हारी आंखों के सामने और तुम चूक जाते हो। कई बार तुमने पूरा पृष्ठ पढ़ लिया होता है, और अचानक तुम्हें ध्यान आता कि तुम पढ़ते रहे हो, तो भी तुमने एक शब्द तक नहीं पढ़ा। तुम्हें याद नहीं तुमने क्या पढ़ा और तुम्हें फिर से पीछे पड़ता है। क्या घट गया? यदि तुम आंखें ही हो तो यह बात कैसे संभव हो सकती थी ? तुम नहीं हो आंखें खिड़की खाली थी पृष्ठ की ओर से देखती हुई। खिड़की के पीछे चेतना मौजूद न थी, वह कहीं और व्यस्त थी। ध्यान वहां नहीं था। तुम शायद आंखें बंद किए खड़े हुए होगे खिड़की पर, या तुम्हारी पीठ थी खिड़की की तरफ, लेकिन तुम देख नहीं रहे थे खिड़की में से ऐसा होता है हर रोज - अकस्मात तुम जानते हो कि कुछ घट गया है और तुमने देखा ही नहीं, तुमने पढ़ा ही नहीं । तुम मौजूद ही न थे, तुम कहीं और थे, किन्हीं और विचारों पर विचार कर रहे थे, किन्हीं और स्वप्नों का स्वप्न देख रहे थे, किन्हीं दूसरे संसारों में विचर रहे थे। खिड़की खाली थी वहां क्या तुम जानते हो खाली आंखों को? जाओ और जरा देखो पागल आदमी को, तुम देख सकते हो वहां खाली आंख वह देखता है तुम्हारी तरफ और नहीं भी देखता। तुम जान सकते हो कि वह देखता है। तुम्हारी तरफ और वह बिलकुल ही नहीं देख रहा होता तुम्हारी तरफ उसकी आंख खाली होती है या तुम जा सकते हो उस संत के पास जो उपलब्ध हो गया हो, फिर उसकी आंख भी खाली हांती है। वह पागल की आंख की भांति नहीं होती, लेकिन कोई चीज समान होती है उसके साथ वह तुम्हारे आरपार देखता है। वह तुम पर ठहर नहीं जाता, वह जाता है तुमसे पार वह नहीं देखता है तुम्हारे शरीर को, बल्कि देखता है तुमको वह उसके पार चला जाता है वह एक ओर हटा देता है तुम्हारा शरीर, तुम्हारा मन तुम्हारा हृदय और वह लांघ जाता है तुम्हें और तुम जानते नहीं कि तुम कौन हो । इसीलिए एक संत की दृष्टि तुम्हारे पार जाती जान पड़ती है वह तुम पर ठहर नहीं जाता, क्योंकि संत के लिए अहंकार नहीं हो तुम, जैसा कि तुम सोचते हो तुम वही हो। वह एक ओर छोड़ देता है अहंकार को वह तो बस झांकता है तुममें एक पागल आदमी खाली आंख से देखता है, क्योंकि उसकी चेतना वहां नहीं होती। एक संत भी खाली आंख से देखता जान पड़ता है, क्योंकि उसकी चेतना बिलकुल वहीं होती है। और वह बहुत गहराई से तुममें उतरता है, तुम्हारे अस्तित्व की अंतिम गहराइयों तक, जहां तुम अभी तक नहीं पहुंचे हो इसलिए ऐसा जान पड़ता है जैसे कि वह तुम्हारी ओर नहीं देख रहा है, क्योंकि वह तुम, जिसके साथ कि तुम्हारा तादात्म्य बन गया है, उसके लिए सत्य नहीं है; बल्कि वह तुम जिसके प्रति तुम सजग नहीं हो, सत्य है उसके लिए । अहंकार है द्रष्टा का माध्यम के साथ, दृश्य के साथ तादात्म्य । यदि तुम माध्यम के साथ तादात्म्य गिरा देते हो, तो अहंकार गिर जाता है और कोई दूसरा रास्ता नहीं है अहंकार गिराने का नहीं बनाओ कोई तादात्म्य शरीर के साथ आंखों, कानों, मन, हृदय के साथ, और अचानक कोई अहंकार बच नहीं रहता। तुम होते हो तुम्हारे समग्र स्वभाव में, लेकिन कोई अहंकार वहां नहीं होता। तुम पहली बार
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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