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________________ तुम्हारा सारा जीवन सुबह से लेकर साझ तक एक प्रार्थना होता है प्रार्थना एक भाव है उसे तुम जीते हो, उसे तुम कोई क्रिया नहीं बनाते। एपीकुरस समझ सकता था पतंजलि को। मैं समझ सकता हूं उन्हें । मैं अनुभव कर सकता हूं कि क्या मतलब है उनका। यह तुम्हारे लिए ही है जो मैं बोल रहा हूं यह सब, ताकि तुम भ्रम में न पड़ जाओ, क्योंकि दूसरी व्याख्याएं भी हैं जो ठीक इसके विपरीत ही पड़ती हैं। - क्रियायोग एक प्रायोगिक प्राथमिक योग है और वह संघटित हुआ है- सहज संयम ( तप), स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण से। पहला शब्द है- सहज-संयम स्व-पीड़कों ने सहज-संयम को स्व-पीड़ा में बदल दिया। वे सोचते हैं कि जितनी ज्यादा पीड़ा तुम देह को पहुंचाते हो, उतने ज्यादा तुम आध्यात्मिक बनते हो। देह को रत्पीडित करना एक मार्ग है आध्यात्मिक होने का यही समझ होती है एक स्व - पीड़क की । - - देह को पीड़ा पहुंचाना कोई मार्ग नहीं उत्पीड़न आक्रामक होता है चाहे तुम दूसरों को पीड़ा पहुंचाओ या कि स्वयं को, यह बात ही आक्रामक होती है, और आक्रामकता कभी धार्मिक नहीं हो सकती है। दूसरों के शरीर को उत्पीड़ित करने और तुम्हारे अपने शरीर को उत्पीड़ित करने के बीच भेद क्या होता है? क्या भेद होता है? शरीर है दूसरा तुम्हारा अपना शरीर भी दूसरा है तुम्हारा अपना शरीर थोड़ा निकट है और दूसरे का शरीर कुछ दूर है, बस इतनी ही है बात। क्योंकि तुम्हारा शरीर ज्यादा नजदीक है इसलिए उसके तुम्हारी हिंसा का शिकार बनने की ज्यादा संभावना है, तुम उत्पीड़ित कर सकते हो उसको। और हजारों सालों से लोग अपने शरीरों को पीड़ा पहुंचाते रहे हैं इस झूठी धारणा के साथ कि यही है ईश्वर की ओर ले जाने का मार्ग । पहली बात ईश्वर ने क्यों दिया तुम्हें शरीर ? उसने तुम्हें कोई अंग शरीर को उत्पीड़ित करने के लिए नहीं दिया है। बल्कि इसके विपरीत, उसने तुम्हें दिया है संवेदनाओं को, संवेदनशीलता को, इंद्रियों कोउससे आनंदित होने के लिए - उत्पीड़ित होने के लिए नहीं। ईश्वर ने तुम्हें बहुत संवेदनशील बनाया है क्योंकि संवेदनशीलता के द्वारा जागरुकता विकसित होती है। यदि तुम पीड़ा पहुंचाते हो तुम्हारे शरीर को तो तुम ज्यादा और ज्यादा संवेदनशून्य हो जाओगे। यदि तुम काटो के बिस्तर पर लेट जाओ, तो धीरे-धीरे तुम संवेदनशून्य हो जाओगे शरीर बन ही जाएगा संवेदनशून्य, अन्यथा कैसे तुम निरंतर सहन कर सकते हो कीटों को? शरीर तो एक तरह से मर ही जाएगा, वह खो देगा अपनी संवेदनशीलता । यदि तुम निरंतर खड़े रहते हो तपते सूर्य की गरमी में, शरीर स्वयं को बचाएगा असंवेदनशील होकर । यदि तुम हिमालय जाकर नग्न बैठ जाते हो जब कि
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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