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________________ यदि तुम देखो विषय-वस्तु की ओर पूरे परिप्रेक्ष्य के साथ, तो विषय अपने हर हिस्से के द्वारा जुड़ा होता है अपरिसीम के साथ। उसके बिना वह अस्तित्व नहीं रख सकता है। कोई विषय, कोई वस्तु स्वतंत्र रूप से अस्तित्व नहीं रखती है। कहीं कोई व्यक्ति नहीं होता है। व्यक्ति तो मात्र एक व्याख्या है। हर 'तहीं, समष्टि अस्तित्व रखती है। यदि तुम हिस्से को बना लेते हो समष्टि, तब तुम विभ्रांत हो जाते हो। न ही दृष्टिकोण होता है अज्ञान का। तब तुम हिस्से को ऐसे देखते हो, जैसे वह संपूर्णता हो। जब तुम दे रहते हो हिस्से की तरफ और संपूर्ण प्रकट हो जाता है उसमें, तो यह दृष्टिकोण होता है एक जाग्रत चेतना का। निर्विचार समाधि की अवस्था में विषय-वस्तु की अनुभूति होती है उसके पूरे परिप्रेक्ष्य में क्योंकि इस अवस्था में ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होता है इंद्रियों को प्रयुक्त किए बिना ही। माध्यम प्रयुक्त नहीं होते। तब बहुत सारी नयी चीजें अकस्मात संभव हो जाती हैं। ये नयी चीजें ही होती हैं सिद्धियां, शक्तियां। जब तुम्हारी कोई निर्भरता नहीं रहती इंद्रियों पर, तब टेलीपेथी, दूर- श्रवण एकदम संभव हो जाता है। इंद्रियों के कारण ही ऐसा होता है कि टेलीपेथी, दूरश्रवण संभव नहीं होती। तब क्लैरवॉयन्स, दूरदृष्टि बिलकुल संभव होती है। इंद्रियों के कारण ही ऐसा होता है कि दूरदृष्टि संभव नहीं होती। चमत्कार साधारण घटनाओं जैसे हो जाते हैं। तुम किसी के विचारों को पढ़ सकते हो, उसके कहने की कोई आवश्यकता नहीं होती, उसके लिए कोई आवश्यकता नहीं रहती, उसे संप्रेषित करने की। पूरे परिप्रेक्ष्य सहित, हर चीज उदघाटित हो जाती है। सारे आवरण उतर जाते हैं। अब और आवरण न रहे, संपूर्ण सत्य तुम्हारे सामने होता है। अदृश्य चीजों को ठोस मूर्त रूप देना संभव हो जाता है। जो कुछ तुम करना चाहते हो, वह तुरंत घट जाता है। कुछ करने की जरूरत नहीं होती। करने की जरूरत थी तो शरीर के ही कारण। यही मतलब है लाओत्स् का, जब वह कहता है, 'संत रहता है निष्कियता में और हर चीज घटती है।' बिना उसके कुछ किए ही लाखों चीजें घटती हैं संत के चारों ओर। वह देखता है तुम्हारी तरफ और अकस्मात वहां मौजूद हो जाता है रूपांतरण। अकस्मात तुम फिर शरीर ही नहीं रहते। जब वह देख रहा होता है तुम्हारी ओर, तुम बन चुके होते हो चेतना। निस्संदेह यह बात स्थायी नहीं बनी रह सकती तुम्हारे साथ, क्योंकि जब उसकी दृष्टि दूर हट जाती है, तुम फिर शरीर होते हो। उसके निकट होने भर से ही तुम किसी अज्ञात संसार के निवासी हो जाते हो। तुम्हें उसके द्वारा स्वाद मिलता है किसी अज्ञात का क्योंकि अब वह स्वयं ही एक खुला हुआ आकाश होता है। कुछ न करते हुए, बहुत सारी चीजें घटती हैं। लेकिन, इससे पहले कि ये चीजें संभव हो पाएं संत की आकाक्षाएं तिरोहित हो चुकी होती हैं। अत: एक संत कभी नहीं करता चमत्कार। और
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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