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________________ सुकरात ने कहा था, 'कहां है तुम्हारा महल इस नक्शे में? कहां हो तुम?' वह आदमी समझ सकता था बात, तो भी वह पूछने लगा, 'बड़ी जरूरत क्या थी इस बात की?' सुकरात बोला, 'बहुत जरूरत थी, क्योंकि इसे समझे बिना किसी संवाद की कोई संभावना नहीं। तुम मेरा समय और अपना समय व्यर्थ करते। अब यदि तुमने सार को समझ लिया हो, तो संभावना है संवाद की। तुम एक ओर रख सकते हो इस अहंकार को, इसका कुछ अर्थ नहीं।' विशाल आकाश के नीचे तुम्हारा अहंकार बिलकुल असंगत हो जाता है। वह अपने से ही गिर जाता है। इसे गिराने की बात तक भी मूढ़ता जान पड़ती है, यह उसके योग्य भी नहीं है। जब परिप्रेक्ष्य पूरा होता है, तुम तिरोहित हो जाते हो। यह बात समझ लेनी है। तुम हो क्योंकि परिप्रेक्ष्य संकुचित है। जितना ज्यादा संकुचित होता है परिप्रेक्ष्य, उतना बड़ा होता है अहंकार। बिना परिप्रेक्ष्य के तो संपूर्ण अहंकार का अस्तित्व बना रहता है। जब परिप्रेक्ष्य विकसित होता है, अहंकार छोटा और छोटा होता चला जाता है। जब परिप्रेक्ष्य संपूर्ण होता है, तो अहंकार बिलकुल मिलता ही नहीं। यहां मेरी पूरी कोशिश यही है-परिप्रेक्ष्य को इतना संपूर्ण बना देना कि अहंकार तिरोहित हो जाए। इसीलिए बहुत सारी दिशाओं से मैं तुम्हारे मन की दीवार पर चोट किए चला जाता हूं। कम से कम कुछ और वातायन बनाए जा सकते हैं प्रारंभ में। बुद्ध के द्वारा एक नया वातायन खुलता है, पतंजलि के द्वारा एक दूसरा, तिलोपा के द्वारा फिर एक और। यही कुछ कर रहा हूं मैं। मैं नहीं चाहता तुम बदध के अनयायी हो जाओ, तिलोपा के या पतंजलि के अनयायी हो जाओ। नहीं। क्योंकि एक अनुयायी के पास ज्यादा बड़ा परिप्रेक्ष्य कभी नहीं हो सकता है -उसका सिद्धात उसका छोटा -सा झरोखा होता है। इतने सारे दृष्टिकोणों के बारे में बोलते हुए, क्या करने की कोशिश कर रहा हूं मैं? मैं इतना ही करने की कोशिश कर रहा हूं -तुम्हें ज्यादा बड़ा परिप्रेक्ष्य देने की, दीवारों में बहुत सारे झरोखा बनाने की। तुम देख सकते हो पूरब की तरफ और तुम देख सकते हो पश्चिम की तरफ, तुम दक्षिण की तरफ देख सकते हो और तुम उत्तर की तरफ देख सकते हो, तब, पूरब की ओर देखते हुए, तुम नहीं कहते कि, 'यही है एकमात्र दिशा।' तुम जानते हो दूसरी दिशाएं हैं। पूरब की ओर देखते हुए तुम नहीं कहते, 'यही है एकमात्र सच्चा धर्म -सिद्धांत', क्योंकि तब परिप्रेक्ष्य संकुचित हो जाता है। मैं सत्य के इतने सारे सिद्धांतो की बात कह रहा हूं र ताकि तुम मुक्त हो सकी सारी दिशाओं से और सिद्धांतो से। स्वतंत्रता आती है समझ द्वारा। जितनी ज्यादा तुम्हारी समझ होती है, उतने ज्यादा तुम स्वतंत्र होते हो। और कभी न कभी जब तुम जान जाते हो बहुत से वातायनों द्वारा कि तुम्हारा पुराना वातायन बिलकुल पुराना पड़ गया है, कुछ ज्यादा अर्थ नहीं रखता, तब एक अंतःप्रेरणा तुममें उठने लगती है कि क्या घटता होगा यदि तुम तोड़ देते हो इन सारी दीवारों को और बाहर भाग खड़े होते हो? एक ही नया वातायन और सारा परिप्रेक्ष्य बदल जाता है! तुम जान जाते हो उन चीजों को जिन्हें तुमने कभी नहीं जाना होता है। जिनकी कल्पना भी नहीं की होती, जिनका स्वप्न तक नहीं देखा होता। क्या होगा
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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