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________________ हैं, क्योंकि शरीर संबंध रखते हैं चीजों के संसार से। आकार होते हैं वहां, लेकिन अब वे भौतिक न रहे। वे आकार होते हैं चलती सक्रिय ऊर्जा के, और वे बदलते रहते हैं। ऐसा ही घट रहा है। तुम बच्चे थे, अब तुम युवा हो, अब तुम वृद्ध हो। घट क्या रहा है -तुम्हारे पास निश्चित आकार नहीं है। आकार निरंतर गतिमान हैं और बदल रहे हैं। एक बच्चा एक युवा व्यक्ति बन रहा है, युवा व्यक्ति वृद्ध बन रहा है, वृद्ध मृत्यु में जा रहा है। तब तुम अचानक देखते हो कि जन्म, जन्म नहीं है, मृत्यु नहीं है मृत्यु। परिवर्तित हो रहे आकार हैं, और निराकार उसी तरह बना रहता है। तुम देख सकते हो कि आलोकित आकारविहीनता सदा वैसी ही बनी रहती है, लाखों आकारों के बीच सरकते हुए परिवर्तित हो रही होती है, फिर भी परिवर्तित नहीं हो रही होती, बढ़ रही होती है, फिर भी नहीं बढ़ रही होती; हर दूसरी चीज बन रही होती, फिर भी वैसी ही बनी रहती है। और यही होता है सौंदर्य और रहस्य। तो जीवन एक है-एक विशाल जीवन-सागर। तब तुम नहीं देखते जीवित प्राणियों को, और मृत प्राणियों को। नहीं। क्योंकि मृत्यु अस्तित्व ही नहीं रखती। ऐसा होता है जड़ रचनातंत्र के कारण, गलत व्याख्या के कारण। न तो जन्म का अस्तित्व होता है और न ही मृत्यु का। जो कि अस्तित्व रखता है वह है जन्मविहीन और मृत्युविहीन, वह शाश्वत है। ऐसा ही दिखता है यह सब, जब तुम मन के बाहर आते हो। अब पतंजलि के सूत्रों में प्रवेश करने का प्रयत्न करो। निर्विचार समाधि की अवस्था में विषय-वस्तु की अनुभूति होती है उसके पूरे परिप्रेक्ष्य में क्योंकि इस अवस्था में ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त होता है इंद्रियों को प्रयुक्त किए बिना ही। जब इंद्रियों का प्रयोग नहीं होता, जब आकाश को देखने के लिए छोटे से छिद्र का प्रयोग नहीं किया जाता.. क्योंकि छिद्र आकाश को अपना ढांचा देगा और हर चीज नष्ट कर देगा-आकाश उस छिद्र से ज्यादा बड़ा नहीं होगा, वह हो नहीं सकता। कैसे तुम्हारा परिप्रेक्ष्य ज्यादा बड़ा हो सकता है तुम्हारी आंखों से? कैसे तुम्हारा स्पर्श ज्यादा बड़ा हो सकता है तुम्हारे हाथों से? और कैसे ध्वनि ज्यादा गहन हो सकती है तुम्हारे कानों से? असंभव! आंखें, कान और नाक छिद्र हैं। उनके द्वारा तुम देख रहे होते हो सत्य को। और अकस्मात निर्विचार में तुम स्वयं में से बाहर कूद जाते हो। पहली बार वह विशालता, वह असीमता जानी जाती है। अब पूरा परिप्रेक्ष्य उपलब्ध हो जाता है। आरंभ नहीं होता है वहा, अंत नहीं होता है वहां। अस्तित्व में कहीं कोई सीमाएं नहीं। वह असीम होता है। कोई सीमा नहीं होती। सारी सीमा तुम्हारी इंद्रियों से संबंधित होती है। वह इंद्रियों द्वारा दी जाती है। अस्तित्व स्वयं असीम है, सारी दिशाओं में तुम चलते और चलते चले जाते हो। उसका कोई अंत नहीं होता।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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