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________________ इसलिए जब मैं कहता हूं कि प्रयोजनवश मैं निर्मित करता हूं स्थितियों को, तो मेरा मतलब होता है : जब कभी मैं अनुभव करता हूं कि कोई एक व्यक्ति तैयार नहीं है, वह व्यक्ति पका नहीं है, उस व्यक्ति को संसार में थोड़ा और पकने की जरूरत है, या कि कोई व्यक्ति बहुत बौद्धिक है और आस्था नहीं रख सकता, उसे शिक्षक की जरूरत है न कि गुरु की; या कि कोई व्यक्ति अपनी ओर से किए गए किसी निर्णय के कारण नहीं आया है मेरे पास, बल्कि बस बहता हुआ आ पहुंचा है संयोगवशांत:::। तुम यों ही चले आ सकते हो। तुम्हारा कोई मित्र आ रहा होता है मुझे मिलने और रास्ते में तुम भी पीछे हो लेते हो। अब तुम पकड़ में आते जाते और फंस जाते और तुमने कभी इरादा नहीं किया था यहां होने का। तुम जा रहे थे कहीं और, किंतु संयोगवशांत तुम यहां आ गए! जब मैं अनुभव करता हूं कि तुम संयोगवश ही यहां हो, तो मैं चाहूंगा कि तुम दूर चले जाओ क्योंकि यह तुम्हारे लिए सही स्थान नहीं। मैं नहीं चाहूंगा कि किसी का अपने मार्ग से ध्यान भंग हो जाए। यदि तुम्हारे मार्ग पर तुम मिल सको मुझसे, तो अच्छा है। यदि मिलन स्वाभाविक है, यदि ऐसा घटना ही था, यदि ऐसा होना भाग्य से जुड़ा ही था, तुम तैयार और तैयार और तैयार हो रहे थे और ऐसा घटना ही था, तब यह बात सुंदर होती है। अन्यथा, मैं तुम्हारा समय खराब करना नहीं चाहूंगा। इस बीच तुम सीख सकते हो बहुत सारी चीजें। या कई बार मैं अनुभव करता हूं कि कोई मेरे पास आया है किसी कारण से जो कि सही कारण नहीं है। बहुत लोग आ जाते हैं गलत कारणों से। कोई आ गया होगा उसमें उठ रहे नए अहंकार को अनुभव करने के लिए ही, वह अहंकार जिसे धर्म दे सकता है, वह अहंकार जिसे दे सकता है संन्यास। धर्म द्वारा तुम अनुभव कर सकते हो बहुत विशिष्ट, असाधारण। यदि मैं अनुभव करता हूं कि कोई इसी चीज के लिए आया है, तब यह ठीक कारण नहीं मेरे पास आने का, क्योंकि अहंकारी मेरे निकट नहीं रह सकते। कोई शायद मेरे विचारों से आकर्षित हुआ होगा-वह भी गलत कारण होता है। मेरे विचार तुम्हारी बुद्धि को आकर्षित करते होंगे, लेकिन बुद्धि कुछ नहीं। वह तुम्हारे संपूर्ण अस्तित्व के लिए एक बाहरी वस्तु ही बनी रहती है। जब तक तुम मेरी ओर आकर्षित नहीं होते, बल्कि जो मैं कहता हूं उसके प्रति आकर्षित होते हो, तो तुम यहां होते हो गलत कारणों से ही। मैं कोई दार्शनिक नहीं हूं और मैं कोई सत्य का सिद्धात नहीं सिखा रहा हूं। इसीलिए मेरे पास असंगत होने की इतनी स्वतंत्रता है, क्योंकि यदि कोई सिद्धात सिखा रहा होता है, तो वह असंगत होने की सामर्थ्य नहीं पा सकता है। मैं किसी चीज का उपदेश नहीं दे रहा है। मेरे पास तुम पर लादने को कोई सिद्धात नहीं है। मेरा तुम्हारे साथ बोलना कोई शिक्षा देना नहीं है। इसीलिए मैं स्वतंत्र हूं पूरी तरह स्वतंत्र हूं स्वयं का खंडन करने के लिए। कुछ मैंने कल कहां, मैं आने वाले कल उसका खंडन कर सकता हूं। जो मैं आज कह रहा हूं, उसे मैं कल काट सकता हूं। मैं कवि
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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