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________________ यह व्यक्ति परिपक्व नहीं होता है और उसे कोई बेमौसमी चीज दे दी जाती है, वह सृजनात्मक नहीं होगी, वह ध्वसांत्मक होगी। यह ऐसा होता है जैसे यदि तुम किसी छोटे बच्चे को शिक्षा देने लगते हो कामवासना के बारे में और वह नहीं जानता कि वह क्या होती है। उसके कोई अंतरावेश नहीं, उसका अभी प्रकट होना बाकी है। तुम विनष्ट कर रहे हो उसके मन को। प्यास उठने दो, अंतरावेश को मौजूद होने दो, तब वह खुला होगा और समझने को तैयार होगा। आध्यात्मिकता कामवासना जैसी ही है। कामवासना को जरूरत होती है एक खास प्रौढ़ता की; चौदहवें वर्ष की आयु में ही बच्चा तैयार होगा। उसकी अपनी उत्तेजना आ बनेगी। वह पूछना शुरू कर देगा, और वह ज्यादा से ज्यादा जानना चाहेगा उसके बारे में। केवल तभी संभावना होती है उसे कुछ निश्चित चीजें समझाने की। ऐसा ही होता है आध्यात्मिकता के साथ: एक निश्चित परिपक्वता आने पर आवेश उठता है, तुम खोज कर रहे होते हो परमात्मा की। संसार तो पहले से ही समाप्त हो चुका। तुम उसे जी चुके होते हो पूरी तरह, तुमने उसे देख लिया पूर्णतया। वह समाप्त हो चुका है। कोई आकर्षण नहीं है उसमें, कोई अर्थ नहीं है उसमें। अब अंतप्रेरणा उठती है स्वयं अस्तित्व का ही अर्थ जानने की। तुम खेल चुके सारे खेल, और अब कोई खेल तुम्हें आकर्षित नहीं करता। जब संसार खो चुका होता है अपना अर्थ, तब तुम प्रौढ़ होते हो। अब तुम्हें जरूरत होगी गुरु की, और गुरु सदा होते हैं, इसलिए कोई जल्दी नहीं है। हो सकता है कि गुरु इस रूप में न हो, इस देह में न हो, बल्कि किसी दूसरी देह में हो। रूप और आकार कोई मतलब नहीं रखते, शरीर कोई संबंध नहीं रखते। गुरु की आंतरिक गुणवत्ता सदा वही होती है, वही होती है, और वही होती है। बुद्ध बार -बार कहते हैं, 'तुम सागर के पानी को कहीं से चखो, वह सदा नमकीन होता है।' इसी भांति, गुरु का सदा एक ही स्वाद होता है। वह स्वाद होता है जागरूकता का। और गुरु सदा होते हैं, वे सदा होंगे, इसलिए कोई जल्दी नहीं है। और यदि संसार के साथ तुम्हारी बात समाप्त नहीं हुई, यदि एक छिपी हुई आकांक्षा है कामवासना को जानने की, धन क्या ला सकता है, इस बात को जानने की, सत्ता तुम्हें क्या दे सकती है, इस बात को जानने की, तब तुम तैयार न हुए। आध्यात्मिक प्यास बहत-सी प्यासों में से ही एक प्यास नहीं है। नहीं, जब सारी :प्यासे अपने अर्थ खो देती हैं तब उठती है वह। आध्यात्मिक प्यास दसरी प्यासों साथ नहीं बनी रह सकती-वैसा संभव नहीं। वह पूरा अधिकार कर लेती है, तुम्हारे संपूर्ण अस्तित्व पर। वह एक और एकमात्र आकांक्षा बन जाती है। केवल तभी गुरु किसी तरह सहायक हो सकता है तुम्हारे लिए।
SR No.034096
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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