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________________ एक घड़ी आती है जब मन सारे बेतुकेपन के प्रति जागरूक हो जाता है। यह कुछ इस तरह है : यदि मैं देखता हूं कि तुम अपने जूतों के फीते खींच रहे हो और उनके द्वारा स्वयं को ऊपर खींचने का प्रयत्न कर रहे हो, तो मैं तुमसे कहता हूं कि क्या बेवकूफी कर रहे हो! कि यह असंभव है। मात्र अपने जूतों के फीतों द्वारा तुम स्वयं को ऊपर नहीं खींच सकते। यह असंभव ही है; यह हो नहीं सकता। इसलिए मैं तुम्हें मना लेता हूं सारी बात पर और अधिक सोचने के लिए, कि यह बेतुका है। तुम कर क्या रहे हो? लेकिन तब तुम दुखित होते हो कि कुछ हो नहीं रहा है इसलिए मैं तुमसे कहता जा रहा हूं जोर दे रहा हूं चोट कर रहा हूं। तब एक दिन शायद तुम्हें होश आये और तुम कहो, 'हां, यह बेतुका है। क्या कर रहा हूं मैं?" मन के साथ तुम्हारा प्रयत्न ऐसा है जैसे अपने जूतों के फीतों द्वारा स्वयं को ऊपर खींचने का प्रयत्न करना। जो कुछ भी तुम कर रहे हो, बेतुका है। यह तुम्हें नर्क के अतिरिक्त, दुख के अतिरिक्त और कहीं नहीं ले जा सकता। यह तुम्हें हमेशा दुख तक ले गया है, लेकिन तुम अब तक होश में नहीं आये हो। मेरी ओर से यह सारा संप्रेषण मात्र तुम्हारे मन को सजग करने के लिए ही है कि तुम्हारा सारा प्रयास निरर्थक है, बेतुका है। एक बार तुम अनुभव करने लगो कि सारा प्रयास बेतुका है, तो प्रयास गिर जाते हैं। ऐसा नहीं है कि तुम्हें अपने जूते के फीते छोड़ने होंगे, कि तुम्हें कुछ प्रयास करना होगा जो श्रमसाध्य होने ही वाला हैं- तुम सीधे इस तथ्य को देखोगे। तुम अपन प्रयास छोड़ दोगे और तुम हंसोगे। तुम प्रबुद्ध हो जाओगे, यदि तुम अपने जूतों के फीते छोड़ खड़े हो...... और हंस भर सकते हो और यही घटना होने वाली है। समझ के द्वारा मन गिर जाता है। अचानक तुम्हें होश आ जाता है कि कोई दूसरा तुम्हारे दुख के लिए जिम्मेवार नहीं था। तुम सतत इसे निर्मित कर रहे थे, क्षण प्रतिक्षण तुम्हीं इसे रचने वाले थे। तुम दुख को निर्मित कर रहे थे और तुम पूछ रहे थे इसके पार कैसे जायें? कैसे हो कि दुखी न बनें ? आनंद कैसे पायें, समाधि कैसे पायें ? और जब तुम पूछ रहे थे, तब तुम दुख का निर्माण किये जा रहे थे यह पूछना कि 'समाधि कैसे प्राप्त करें? दुख निर्मित करता है क्योंकि तब तुम कहते हो, मैंने इतना अधिक प्रयत्न किया और समाधि अब तक उपलब्ध नहीं हुई! सब कुछ जो किया जा सकता है मैं कर रहा हूं और समाधि अब भी नहीं मिली है! मैं बुद्ध कब होऊंगा! जब तुम संबोधि को भी इच्छा का लक्ष्यबिंदु बना लेते हो, जो असंगत है, तब तुम नये दुख का निर्माण कर रहे होते हो। कोई इच्छा परितृप्ति नहीं पा सकती। इसे जब तुम जान लेते हो, इच्छाएं गिर जाती हैं। तब तुम प्रबुद्ध होते हो। इच्छा-विहीन तुम प्रबुद्ध हो जाते हो। लेकिन इच्छाओं के साथ, दुख के एक चक्र में घूमते चले जाते हो। सातवां प्रश्न:
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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