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________________ तो मात्र दवार है। कैसे तुम सदा के लिए दवार पर ही टिके रह सकते हो? देर-अबेर तुम्हें प्रवेश करना ही है। विधायक से हटकर तम और जाओगे कहां? एक बार नकारात्मक गिर जाता है, तो तुम देख सकते हो कि विधायक उसका दूसरा पहलू मात्र ही है-वस्तुत विरोधी नहीं है, न ही विपरीत, बल्कि दोनों एक गठबंधन में होते हैं। वे दोनों ही जुड़े होते हैं किसी संधि से; वे इकट्ठे ही होते है। जब यह समझ जाग उठती है कि विधायक नकारात्मक बन जाता है तब तुम गिरा सकते हो इसे। वास्तव में यह कहना ठीक नहीं कि तुम इसे गिरा सकते हो, यह गिर ही जाता है। यह भी नकारात्मक बन जाता है-तब तुम जान लेते हो कि इस जीवन में प्रसन्नता जैसा कुछ है ही नहीं। प्रसन्नता एक चालबाजी है अप्रसन्नता की ही। यह अंडे और मुर्गी के संबंध की भांति ही है। मुर्गी होती क्या है? यह मार्ग है अंडे को लाने का। और अंडा क्या है? यह एक मार्ग है मर्गी को ले आने का। विधायक और नकारात्मक वास्तविक विपरीतताए नहीं हैं। वे अंडे और मर्गी की भांति ही हैं; मां और बच्चा। वे एक दूसरे की सहायता करते अहै एक-दूसरे से आते हैं। लेकिन यह समझ केवल तभी संभव होती है जब नकारात्मक गिरा दिया जाता है। तब तुम गिरा सकते हो विधायक को भी। और तब तुम ठहर सकते हो उस संक्रमण के क्षण में, जो कि महानतम क्षण होता है अस्तित्व में! तुम और कोई क्षण नहीं अनुभव करोगे जो इतना लंबा हो। यह ऐसा होता है जैसे कि वर्ष गुजर रहे हों-खालीपन के कारण। तुम सारे अर्थ, सारे पहलू खो देते हो; सारा अतीत खो जाता है। अचानक हर चीज खाली हो जाती है। तुम नहीं जानते-तुम कहां होते हो, तुम कौन होते हो, क्या घट रहा होता है। यह पागलपन की घड़ी होती है। यदि तुम इस घड़ी पर पहुंचकर लौट आने का प्रयत्न करते हो, तो तुम सदा पागल रहोगे। बहुत लोग पागल हो जाते हैं ध्यान के द्वारा। इसी घड़ी से वे पीछे हटने लगते हैं। और अब कुछ नहीं होता हट कर सहारा लेने को क्योंकि विधायक और नकारात्मक गिरा दिये गये होते हैं। वे अब विद्यमान नहीं रहते; 'घर' अब नहीं रहा वहां। एक बार तुम'घर' छोड़ देते हो तो वह तिरोहित हो जाता है। वह तुम पर निर्भर करता था; वह कोई पृथक तत्व नहीं होता है। मन एक पृथक तत्व नहीं है। वह तुम पर निर्भर करता है। एक बार तुम छोड़ देते हो उसे, वह वहां नहीं रहता। तुम लौट नहीं सकते या उसका सहारा नहीं ले सकते। यह पागलपन की दशा होती है। तुम्हें अतिक्रमण उपलब्ध नहीं हुआ है, फिर भी तुम वापस आ जाते हो और मन को खोजते हो और तुम पाते हो वह बचा ही नहीं है। 'घर' तिरोहित हो चुका है।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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