SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसीलिए तुम बुद्ध के पास एक सूक्ष्म ताजगी का अनुभव पाते हो, जैसे कि उन्होंने बिलकुल अभी खान किया हो। तुम उनके निकट आते हो और तुम्हें एक सुवास अनुभव होती है-ताजेपन की सुवास। तुम उन्हीं बुद्ध को फिर से नहीं मिल सकते। हर क्षण वे नये होते हैं। हिंदू बहुत समझदार हैं क्योंकि हजारों वर्षों से बुद्धों, जिनों-जीवन के विजेताओं, संबोधि को उपलब्ध व्यक्तियों, जाग्रत प्रज्ञा पुरुषों का साक्षात्कार करने के कारण वे बहुत सारे सत्य जान चुके हैं। उनमें से एक सत्य तुम हर कहीं देखोगे। कोई बुद्ध वृद्ध के रूप में चित्रित नहीं किया गया, कोई महावीर चित्रित नहीं किया गया वृद्ध के रूप में। उनकी वृद्धावस्था की कोई मूर्ति या तस्वीर अस्तित्व नहीं रखती। कृष्ण, राम, बुद्ध, महावीर, उनमें से कोई वृद्ध की भांति चित्रित नहीं हुआ। ऐसा नहीं है कि वे कभी वृद्ध नहीं हुए। वे हुए वृद्ध। बुद्ध हुए ही थे वृद्ध जब वे अस्सी वर्ष के हुए। वे उतने ही वृद्ध थे जितना कि कोई भी अस्सी वर्ष का व्यक्ति होगा। लेकिन उनका चित्रण वृद्ध के रूप में नहीं किया गया है। कारण आंतरिक है। क्योंकि जब कभी कोई उनके निकट आयेगा, वह उन्हें युवा और ताजा ही पायेगा। तो पुरानापन मात्र शरीर में था, उनमें नहीं था। और मुझे तुम्हें मिटाना पड़ता है क्योंकि तुम्हारा शरीर युवा हो सकता है, लेकिन तुम्हारा आंतरिक अचेतन बहुत-बहुत पुराना और प्राचीन है। यह एक खंडहर है-पर्सेपोलिस के ग्रीक खंडहरों और कई दूसरे खंडहरों की भांति ही। तुम्हारे भीतर अचेतन का एक खंडहर है। इसे मिटाना ही है। और मुझे तुम्हारे लिए एक अग्रि कुंड, एक अग्रि, एक मृत्यु होना है। केवल इसी भांति मैं मदद कर सकता हूं और तुम्हारे भीतर एक सुसंगति, एक व्यवस्था ला सकता है। और मैं तुम पर किसी सुव्यवस्था को लादने का कार्य नहीं कर रहा हं क्योंकि वह बात मदद न करेगी। कोई व्यवस्था जो बाहर से थोपी जाती है,मात्र एक आधार होगी पुराने प्राचीन खंडहर के लिए। यह मदद न देगी। मैं आंतरिक सुव्यवस्था में विश्वास करता है। वह घटता है तुम्हारी अपनी जागरूकता और पुनर्जीवन के साथ। वह आता है भीतर से और फैलता है बाहर की ओर। एक फूल की भांति यह खिलता है और पंखुडियां फैलती है बाहर, केंद्र से बाह्य सतह की ओर। केवल वह सुव्यवस्था ही वास्तविक और सुंदर होती है जो तुम्हारे भीतर खिलती है और फैल जाती है तुम्हारे सब ओर। यदि व्यवस्था, संगति बाहर से लागू की जाती है, यदि 'यह करो और वह न करो', का अनुशासन तुम्हें दे दिया जाता है और तुम कैदी होने को बाध्य होते हो, तो यह बात मदद न देगी क्योंकि यह तुम्हें बदलेगी नहीं। बाहर से कुछ नहीं बदला जा सकता है। क्रांति केवल एक ही होती है, और वह वही होती है जो भीतर से आती है। लेकिन इससे पहले कि वह घटे, तुम्हें पूरी तरह से मिटना होगा। केवल
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy