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________________ तुम प्रतीक्षा करने का निर्णय लेते हो, तो सुंदर। अगर तुम बिलकुल अभी छलांग लगाने का निर्णय लेते हो, तो सुंदर मेरे देखे, हर चीज सुंदर और महान है, और मेरा कोई चुनाव नहीं है। मैं तो बस तुम्हें दे देता हूं सारे चुनाव सारे विकल्प। अगर तुम कहते हो, मैं थोड़ी और प्रतीक्षा करना चाहूंगा, तो मैं कहता हूं शुभ! मैं आशीष देता हूं। करो थोड़ी प्रतीक्षा। अगर तुम कहते हो, मैं तैयार हूं और मैं छलांग लगाना चाहता हूं तो मैं कहता हूं'छलांग लगा दो, मेरे आशीष सहित ।' मेरे लिए कोई चुनाव नहीं न तो हेराक्लतु न ही पतंजलि में तो केवल द्वार खोल रहा हूं तुम्हारे लिए इस आशा में कि शायद तुम किसी द्वार में प्रवेश कर जाओ। लेकिन याद रखना मन की चालाकियां जब मैं हेराक्लतु पर बोलता हूं तो तुम सोचते हो, 'यह बहुत धुंधला है, बहुत रहस्यपूर्ण, बहुत सरल! 'जब मैं पतंजलि पर बोलता हूं तो तुम सोचते हो, 'यह बहुत कठिन है, लगभग असंभव' में द्वार खोल देता हूं और तुम व्याख्या बना लेते हो। तुम निर्णय कर लेते हो । और तुम स्वयं को रोक लेते हो। द्वार खुला है लेकिन तुम्हारे निर्णय देने को नहीं, तुम्हारे प्रवेश करने के लिए। विश्वास से बढ़कर श्रद्धा तक पहुंचने के विषय में आपने कहा है? संदेह और विश्वास के बीच झुलने वाले हमारे मन का उपयोग हम इन दो छोरों के पार जाने के लिए किस तरह कर सकते हैं? संदेह और विश्वास भिन्न नहीं हैं वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। पहले इसे समझ लेना है, क्योंकि लोग सोचते हैं कि जब वे विश्वास करते हैं, तो वे संदेह के पार जा चुके होते हैं। विश्वास संदेह के समान ही है क्योंकि दोनों मन के विषय हैं। तुम्हारा मन बहस करता, नहीं कहता, हां कहने में मदद देने को कोई प्रमाण नहीं जुटाता, तो तुम संदेह करते हो। फिर तुम्हारा मन हां कहने के लिए युइका खोजता है, प्रमाण खोजता है, तो तुम विश्वास कर लेते हो। लेकिन दोनों अवस्थाओं में तुम तर्क में विश्वास करते हो, दोनों अवस्थाओं में तुम युइका में विश्वास करते हो भेद तो मात्र सतह पर ही है, नीचे गहरे में तुम तर्क में ही विश्वास करते हो; और श्रद्धा है तर्क के बाहर हो जाना। श्रद्धा पागल है, अबौदधिक है, बेतुकी है। और मैं कहता हूं श्रद्धा विश्वास नहीं है, श्रद्धा व्यक्तिगत साक्षात्कार है। विश्वास फिर दिया हुआ ही होता है या उधार लिया होता है। वह एक संस्कार है। विश्वास एक संस्कार है, जिसे मातापिता, सभ्यता, समाज तुम्हें देता है। तुम इसकी परवाह नहीं करते; तुम इसे व्यक्तिगत विषय नहीं बनाते। यह एक दी हुई चीज है। एक चीज जो दी गयी है और जो एक व्यक्तिगत विकास नहीं है, मात्र एक ऊपरी चीज होती है; एक नकली चेहरा, रविवारीय चेहरा ।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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