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________________ समस्या होती है तो अपनी चेतना का उपयोग करता है। ताजे रूप से वह अपनी चेतना का उपयोग करता है। वह समस्या से साक्षात्कार करता है, और फिर उसके भीतर जो कोई विचार उदित होता है वह स्मृति का हिस्सा नहीं होता। भेद यही है। विचारों से भरा व्यक्ति स्मृति का व्यक्ति है; उसके पास चिंतन की क्षमता नहीं है। अगर तुम वह प्रश्न पूछते हो जो नया है, वह हकबकाया हुआ होगा। वह उत्तर नहीं दे सकता। अगर तुम कोई प्रश्न पूछते हो जिसका उत्तर वह जानता है, वह तुरंत उत्तर देगा। यह अंतर है पंडित और उस व्यक्ति के बीच, जो जानता है; वह व्यक्ति जो सोच सकता है। पतंजलि कहते हैं कि वितर्क, सम्यक तर्क ले जाता है अनुचितन की ओर, विचार की ओर। अनुचितन, विचार ले जाता है आनंद की ओर। यह पहली झलक है, और निस्संदेह यह एक झलक ही है। यह आयेगी और यह खो जायेगी। तुम इसे बहुत देर तक पकड़े नहीं रख सकते। यह मात्र झलक ही बनने वाली थी; जैसे कि एक क्षण को बिजली कौंधी, और तुम देखते हो, सारा अंधकार तिरोहित हो जाता है। किंतु फिर वहां अंधकार आ बनता है। यह ऐसा है कि जैसे कि बादल तिरोहित हो गये और तुमने क्षण भर को चांद देखा, फिर दोबारा वहां बादल आ जाते हैं। या किसी उज्जवल सुबह हिमालय के निकट, क्षण भर को तुम्हें गौरीशंकर की झलक मिल सकती है-उच्चतम शिखर की। लेकिन फिर वहां धंध होती है। और फिर वहां बादल होते हैं, और शिखर खो जाता है। यह है सतोरी। इसीलिए सतोरी का अनुवाद समाधि की भांति करने की कोशिश कभी न करना। सतोरी एक झलक है। यह उपलब्ध हो जाती है तो बहुत कुछ करना होता है इसके बाद। वस्तुत:, वास्तविक कार्य शुरू होता है पहली सतोरी के बाद, पहली झलक के बाद, क्योंकि तब तुमने अपरिसीम का स्वाद पा लिया होता है। अब एक वास्तविक, प्रामाणिक तलाश शुरू होती है। इससे पहले तो, वह बस ऐसी-वैसी थी, कुनकुनी;क्योंकि तुम वास्तव में आश्वस्त न थे, निश्चित न थे, इस बात के लिए कि तुम क्या कर रहे हो, तुम कहां जा रहे हो, क्या हो रहा है। इससे पहले, यह एक आस्था थी, श्रद्धा थी। इसके पहले एक गुरु की आवश्यकता थी तुम्हें मार्ग दर्शाने को, तुम्हें बार-बार वापस मार्ग पर लाने को। लेकिन अब सतोरी के घटित होने के बाद यह कोई आस्था न रही। यह एक अनुभव बन चुका है। अब आस्था एक प्रयत्न नहीं है। अब तुम श्रद्धा करते हो क्योंकि तुम्हारे अपने अनुभव ने तुम्हें दर्शा दिया है। पहली झलक के बाद वास्तविक खोज शुरू होती है। इससे पहले तो तुम गोल-गोल घूम रहे थे। सम्यक तर्क ले जाता है सम्यक अनुचितन की तरफ, सम्यक अनुचितन ले जाता है आनंदमयी अवस्था की तरफ। और यह आनंदपूर्ण अवस्था ले जाती है विशुद्ध अंतस सत्ता की अवस्था में। एक नकारात्मक मन हमेशा अहंकारी होता है, यह है अंतस सत्ता की अशुद्ध अवस्था। तुम अनुभव करते हो 'मैं' को,लेकिन तुम 'मैं' का अनुभव गलत कारणों से करते हो। जरा ध्यान
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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