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________________ लिए, लेकिन तुम्हारे पास आदतों का गलत ढांचा है वे आदतें बाधाएं निर्मित करती हैं। लड़ाई इन आदतों के विरुद्ध है। और जब तक वे नष्ट नहीं होतीं, स्वभाव, तुम्हारा आंतरिक स्वभाव प्रवाहित नहीं हो सकता, आगे नहीं बढ़ सकता; उस नियति तक नहीं पहुंच सकता जिसके लिए यह बना है। तो यह पहली बात ध्यान में लेना संघर्ष स्वभाव के विरुद्ध नहीं है। संघर्ष गलत स्वभाव के, गलत आदतों के विरुद्ध है। तुम स्वयं से नहीं लड़ रहे हो; तुम कुछ दूसरी चीज की ओर से लड़ रहे हो, जो तुम्हारे भीतर जड़ हो गयी है। यदि इसे ठीक से नहीं समझा जाता तो तुम्हारी सारी कोशिश गलत दिशा की ओर जा सकती है। हो सकता है तुम स्वयं के साथ लड़ना शुरू कर दो, और एक बार तुम स्वयं से लड़ना शुरू करते हो, तो तुम हारने वाली लड़ाई लड़ रहे होते हो। तुम कभी विजयी नहीं हो सकते। कौन विजयी होगा और कौन पराजित होगा? तुम दोनों हो एक वह जो लड़ रहा है और एक वह जिससे तुम लड़ रहे हो, दोनों एक हैं। अगर मेरे दोनों हाथ लड़ना शुरू कर दें तो कौन जीतने वाला है? एक बार तुम स्वयं से लड़ना शुरू करते हो, तो तुम हारने ही वाले हो और बहुत सारे लोग, अपने प्रयास में, आध्यात्मिक सत्य की अपनी खोज में, इस भूल में गिर जाते हैं। वे इस भूल के शिकार हो जाते हैं। वे स्वयं से लड़ने लग जाते हैं। यदि तुम स्वयं से लड़ते हो, तो तुम ज्यादा और ज्यादा विक्षिप्त हो जाओगे। तुम ज्यादा से ज्यादा विभाजित हो जाओगे। विखंडित। तुम स्किजोफ्रेनिक, खंडित मनस्क हो जाअप्ती । और यही है जो पश्चिम में घट रहा है। क्रिश्चिनिटी सिखा गयी है क्राइस्ट नहीं, बल्कि क्रिश्चियनिटी सिखा गयी है स्वयं से लड़ने के लिए, स्वयं की निंदा करने के लिए, स्वयं को अस्वीकार करने के लिए। ईसाइयत ने बड़े विभाजन निर्मित कर दिये हैं नीचे और ऊंचे के बीच कुछ निचला नहीं है और कुछ ऊंचा नहीं है, लेकिन ईसाइयत निम्नतर आत्मा और उच्चतर आत्मा के बारे में कहती है, शरीर और आत्मा । किसी भी तरह ईसाइयत तुम्हें विभक्त करती है और लड़ाई निर्मित करती है। यह लड़ाई अंतहीन होने वाली है। यह तुम्हें कहीं नहीं ले जायेगी। अंतिम परिणाम केवल आत्मविनाश हो सकता है, विखंडित मनस्क अव्यवस्था। यही तो हो रहा है पश्चिम में। योग कभी तुम्हें विभक्त नहीं करता, लेकिन तब भी एक संघर्ष है। लेकिन यह संघर्ष तुम्हारे स्वभाव के विरुद्ध नहीं है। इसके विपरीत, संघर्ष तुम्हारे स्वभाव के लिए है। तुमने बहु सारी आदतें संचित कर ली हैं। वे आदतें तुम्हारे बहुत से जन्मों की प्राप्तियां हैं तुम्हारे गलत ढांचे और उन्हीं गलत ढांचों के कारण तुम्हारा स्वभाव सहजता से आगे नहीं बढ़ सकता। सहजता से प्रवाहित नहीं हो सकता, अपनी नियति तक नहीं पहुंच सकता। इन आदतों को नष्ट करना होता है और ये केवल आदतें ही होती हैं। वे तुम्हें स्वभाव की भांति जान पड़ सकती हैं क्योंकि तुम उनसे इतने ज्यादा ग्रसित हुए होते हो। हो सकता है तुम उनके साथ तादात्म्य बना चुके हो, लेकिन तुम वे ही नहीं हो।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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