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________________ अब मनसविद कहते हैं कि घृणा और क्रोध स्वाभाविक नहीं होता है। प्रेम स्वाभाविक है। घृणा और क्रोध तो निर्मित किये जाते हैं। वे प्रेम के लिए बाधाएं हैं, लेकिन समाज उनके लिए तुम्हें संस्कारित कर देता है। संस्कार के अभाव का अर्थ है कि जो कुछ भी समाज ने किया है, उसने किया है। उसकी निंदा ही करते चले जाने का कोई उपयोग नहीं है। यह अवस्था है। केवल कह देने भर से कि समाज जिम्मेदार है, तुम्हें सहायता नहीं मिलती है। संस्कारित तो कर दिया गया है। बिलकुल अभी जो तुम कर सकते हो वह यह है कि स्वयं को अ-संस्कारित करो। तो जो कुछ भी तुम्हारी समस्या है, उसे गहरे में देखो। उसमें उतरो, उसे विश्लेषित करो और समझो कि तुम कैसे उसमें संस्कारित किये गये हो। उदाहरण के लिए ऐसे समाज हैं जो कभी प्रतिस्पर्धा नहीं करते। भारत में भी आदिवासी जातियां हैं जिनके लिए प्रतिस्पर्धा कोई अस्तित्व नहीं रखती। बेशक वे हमारे मानदंडों के अनुसार बहत प्रगतिशील नहीं हो सकते। क्योंकि हमारी तरह की उन्नति केवल प्रतियोगिता का परिणाम हो सकती है, और वे प्रतियोगी नहीं होते हैं। लेकिन क्योंकि वे प्रतियोगी नहीं हैं, वे क्रोधी नहीं हैं,वे ईर्ष्यालु नहीं हैं, वे बहुत ज्यादा घृणा से भरे हुए नहीं हैं, वे इतने हिंसात्मक नहीं हैं। वे बहुत अपेक्षा नहीं रखते और वे प्रसन्न तथा कृतज्ञ अनुभव करते हैं उसके लिए, जो जीवन उन्हें देता है। तुम्हें चाहे जीवन कुछ भी दे दे, तुम कभी कृतज्ञ अनुभव नहीं करते। तुम हमेशा निराश रहते हो क्योंकि तुम हमेशा अधिक की मांग कर सकते हो। तुम्हारी आशाओं और इच्छाओं का कोई अंत नहीं है। इसलिए अगर तुम दुखी अनुभव करते हो,तो दुख को जांचना और उसका विश्लेषण करना। वे संस्कारक तत्व क्या हैं जो दुःख निर्मित कर रहे हैं? और यह बहुत कठिन नहीं है समझना। यदि तुम दुख निर्मित कर सकते हो, यदि तुम इतने समर्थ हो दुख निर्मित करने में, तो इसे समझने में कोई कठिनाई नहीं है। यदि तुम इसे निर्मित कर सकते हो, तो तुम इसे समझ सकते हो। पतंजलि का सारा दृष्टिकोण यह है : आदमी के दुख पर दृष्टि डालते हुए, यह पाया गया है कि आदमी स्वयं जिम्मेदार है। वह कुछ कर रहा है दुख निर्मित करने के लिए। वह करना एक आदत हो गया है, इसलिए वह किये चला जाता है। वह आवृत्तिमूलक बन गया है, यांत्रिक, यंत्र-मानव जैसा। लेकिन यदि तुम जागरूक बन जाते हो, तो तुम इसे समाप्त कर सकते हो। तुम आसानी से कह सकते हो कि मैं सहयोग नहीं दूंगा। तब रचनातंत्र कार्य करना बंद कर देगा। कोई तुम्हारा अपमान कर देता है। तुम बस स्थिर बने रहते हो और चुप हो जाते हो। प्रक्रिया आरंभ होगी; पिछला ढांचा सक्रिय हो जायेगा। क्रोध आयेगा, धुंआ उठेगा और तुम बस पागल होने की सीमा पर होओगे। लेकिन तुम निश्चेष्ट बने रहो। सहयोग मत दो और बस देखो कि कल-पुरजे क्या कर रहे हैं। तुम अनुभव करोगे चक्र के भीतर चक्र घूम रहे हैं तुम्हारे भीतर,लेकिन वे असमर्थ हैं क्योंकि तुम सहयोग नहीं दे रहे।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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