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________________ लिए बाहर खड़ी नहीं होती तो इसे तुम स्वीकार नहीं कर सकते। यह बात तुम्हें हताशा और दुख देती है। तुम मांग करते हो, और तुम्हारी मांगों के द्वारा हो तुम दुख निर्मित कर लेते हो। लेकिन मांग की संभावना है केवल यदि तुम मोह में पड़ो। तुम उन व्यक्तियों से मांग नहीं कर सकते जो तुम्हारे लिए अजनबी हों। केवल मोह के साथ मांग भीतर चली आती है। इसलिए सारे मोह नरक की भांति बन जाते हैं। पतंजलि कहते है, अनासक्त हो जाओ। इसका अर्थ है, प्रवाहमान हो जाओ। जो कुछ भी जीवन लाये उसे स्वीकृति देने वाले बन जाओ। मांग मत करो और जबरदस्ती मत करो क्योंकि जीवन तुम्हारे पीछे चलने वाला नहीं है। तुम जीवन को बाध्य नहीं कर सकते तुम्हारे अनुसार चलने के लिए। नदी के साथ बहना बेहतर है बजाय उसे धकेलने के। बस, उसके साथ बहो। तब बहुत खुशी की संभावना होती है। अभी भी तुम्हारे चारों ओर बहुत खुशी है, लेकिन तुम फिक्सेशन, जड़-निर्धारण के कारण उसे देख नहीं सकते। प्रारंभ में गैर-मोह केवल एक बीज होगा। अंत में गैर-मोह इच्छारहितता बन जाता है। प्रारंभ में गैर-मौह का अर्थ होता है गैर-जड़ता, लेकिन अंत में गैर-मोह का अर्थ होगा इच्छारहितता कोई इच्छा नहीं। आरंभ में कोई मांग नहीं, अंत में कोई इच्छा नहीं। लेकिन यदि तुम निर्वासना के इस अंत तक पहुंचना चाहते हो, तो मागरहितता से आरंभ करो। पतंजलि के सूत्र को आजमाओ, चाहे चौबीस घंटों के लिए ही। चौबीस घंटों के लिए, बस जिंदगी के साथ बहो बिना किसी चीज को मांगे। जो कुछ भी जिंदगी देती है, अनुगृहीत अनुभव करो, कृतज्ञ। चौबीस घंटे के लिए बस मन की प्रार्थनापूर्ण अवस्था में घूमते रहो-बिना कुछ मांगे, बिना दावा किये, बिना अपेक्षा के; और तुम एक नया खुलापन पाओगे। वे चौबीस घंटे नया झरोखा बन जायेंगे। तुम अनुभव करोगे कि तुम कितने आनंदित हो सकते हो। लेकिन आरंभ में तुम्हें जागरूक होना पड़ेगा। किसी खोजी से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि गैर-मोह उसके लिए सहज क्रिया हो सकती हैं। प्रश्न दूसरा: ऐसा क्यों है कि बुद्ध-पुरुष स्वयं को केवल एक व्यक्ति को देते हैं जैसा कि महाकाश्यप के विषय में बुद्ध ने किया था। वस्तुत: एक शिष्य द्वारा ज्योति ग्रहण करने की बौद्ध परंपरा आठ पीढ़ियों तक जारी रही। क्या एक समूह के लिए संभव नहीं था उसको पाना?
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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