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________________ चौबीस घंटे तो बहुत ज्यादा है; चौबीस सेकंड चल जायेंगे। प्रतीक्षा करना मात्र तुम्हें बदल देता है। वह ऊर्जा जो क्रोध की ओर बह रही है, नया रास्ता अपना लेती है। यह वही ऊर्जा है। यह क्रोध बन सकती है, यह करुणा बन सकती है। इसे जरा मौका दे दो। तो पुराने शास्त्र कहते है, 'यदि कोई अच्छा विचार तुम्हारे मन में आता है, तो उसे स्थगित मत करो; उस काम को तुरंत करो। और यदि कोई बुरा विचार मन में आता है, तो उसे स्थगित कर दो; उसे तत्काल कभी मत करो।' लेकिन हम बहुत चालाक हैं, बहुत होशियार। हम सोचते हैं, और जब भी कोई अच्छा विचार आता है, हम उसे स्थगित कर देते है। ____ मार्क ट्वेन ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि वह दस मिनट तक एक पादरी को सुन रहा था, किसी चर्च में। व्याख्यान तो असाधारण था और उसने अपने मन में सोचा, आज मुझे दस डॉलर दान करने ही हैं। यह पादरी अद्भुत है। इस चर्च की मदद की ही जानी चाहिए! उसने निर्णय ले लिया कि व्याख्यान के बाद उसे दस डॉलर दान करने ही हैं। दस मिनट और हुए और वह सोचने लगा कि दस डालर तो बहुत ज्यादा होंगे। पांच से काम चलेगा। दस मिनट और हुए और उसने सोचा, 'यह आदमी तो पांच के लायक भी नहीं है।' अब वह कुछ सुन भी नहीं रहा था। अब वह उन दस डॉलर के लिए चिंतित था। उसने इस विषय में किसी से कुछ नहीं कहा था, लेकिन अब वह अपने को यकीन दिला रहा था कि यह तो बहुत ज्यादा था। जिस समय तक व्याख्यान समाप्त हुआ,उसने कहा, 'मैने कुछ न देने का फैसला किया। और जब वह आदमी मेरे सामने चंदा लेने आया, वह आदमी जो इधर से उधर जा रहा था चंदा इकट्ठा करने के लिए, मैंने कुछ डॉलर उठा लेने और चर्च से भागने तक की बात सोच ली।' मन निरंतर परिवर्तित हो रहा है। यह गतिहीन कभी नहीं है; यह एक प्रवाह है। तो अगर कुछ बुरा वहां है, तो थोड़ी प्रतीक्षा करना। तुम मन को स्थिर नहीं कर सकते। मन एक प्रवाह है। बस, थोड़ी प्रतीक्षा करना और तुम बुरा नहीं कर पाओगे। लेकिन अगर कुछ अच्छा होता है और तुम उसे करना चाहते हो, तो फौरन उसे कर डालो क्योंकि मन परिवर्तित हो रहा है। कुछ मिनटों के बाद तुम उसे कर न पाओगे। तो अगर वह प्रेमपूर्ण और भला कार्य है, तो उसे स्थगित मत करो। और अगर यह कुछ हिंसात्मक या विध्वंसक है, तो उसे थोड़ा-सा स्थगित कर दो। यदि क्रोध आये, तो उसे पांच सांसों तक स्थगित करना, और तुम क्रोध कर न पाओगे। यह एक अभ्यास बन जायेगा। हर बार जब क्रोध आये, पहले अंदर सांस लो और बाहर निकालो पांच बार। फिर तुम मुक्त हो वह करने के लिए, जो तुम करना चाहते हो। निरंतर इसे किये जाओ। यह आदत बन जाती है, तुम्हें इसके बारे में सोचने की भी जरूरत नहीं। जिस क्षण क्रोध प्रवेश करता है, तुम्हारे अंदर का रचनातंत्र तेज, गहरी सांस लेने लगता है। तुम सांस शांत और शिथिल लेने लगो, तो कुछ वर्षों के भीतर तुम्हारे लिए नितांत असंभव हो जायेगा क्रोध करना। तुम क्रोधित हो नहीं पाओगे।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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