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________________ देखते। केवल सुन कर कि, 'यह गुलाब है' तुम यंत्रवत कह देते हो, 'सुंदर'। तुम्हें सुंदरता की प्रतीति नहीं हुई; तुमने सुंदरता को महसूस नहीं किया; तुमने इस फूल को छुआ नहीं। केवल इतना है कि 'गुलाब सुंदर होते हैं' यह तुम्हारे मन में है, इसलिए जिस क्षण तुम सुनते हो 'गुलाब', मन प्रक्षेपण करता है और कह देता है, 'यह सुंदर है'। हो सकता है कि तुम विश्वास कर लो कि तुम्हें अनुभव हो गया है कि गुलाब सुंदर है, लेकिन ऐसा होता नहीं है। यह भ्रम है। जरा इस पर ध्यान दो। इसलिए बड़ों की अपेक्षा बच्चे चीजों में कहीं ज्यादा गहरे पहुंचते हैं, क्योंकि वे नामों को नहीं जानते है। वे अभी पूर्वाग्रही नहीं है। यदि कोई गुलाब सुंदर है, केवल तभी वे सोचेंगे कि वह सुंदर है। उनके लिए सभी गुलाब सुंदर नहीं हैं। बचे चीजों के ज्यादा करीब चले आते हैं। उनकी नजरें ताजी होती है। चीजें जैसी है वे उसी तरह उन्हें देखते हैं क्योंकि वे नहीं जानते कि किसी चीज को कैसे प्रक्षेपित करें। लेकिन हम हमेशा उन्हें बड़ा करने की, उन्हें वयस्क बनाने की जल्दी में होते हैं। हम उनके मन को ज्ञान से, जानकारियों से भर रहे हैं। इधर मनोवैज्ञानिकों की सबसे नयी खोज है कि जब बच्चे स्कूल में दाखिल होते हैं, तो वे ज्यादा बुद्धिमान होते हैं उससे जबकि वे यूनिवर्सिटी छोड़ते हैं। नवीनतम खोजें यही सिदध करती हैं। पहली श्रेणी में जब बच्चे प्रवेश करते है, तब उनके पास ज्यादा बदधि होती है। उनकी बुदधि कम और कम और कम होती जायेगी, जैसे-जैसे वे ज्ञान में विकसित होते जाते है। जब तक वे स्नातक और पंडित और डॉक्टर होते हैं, वे समाप्त हो जाते हैं। जब वे लौटते हैं डॉक्टर की डिग्री लेकर, पी-एच डी लेकर, वे अपनी बुद्धि कहीं यूनिवर्सिटी में ही छोड़ चुके होते है। वे मुर्दा होते है। वे ज्ञान से भरे हुए होते हैं, ज्ञान से ठसाठस भरे होते है, लेकिन यह ज्ञान मिथ्या ही है-हर चीज के लिए पूर्वाग्रह। अब वे चीजों को सीधे-सीधे अनुभव नहीं कर सकते। वे जीवित व्यक्तियों का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं कर सकते। वे सीधे तौर पर संबंधित नहीं हो सकते। हर चीज शब्दों का आडंबर हो गयी है, शाब्दिक। अब वह वास्तविक नहीं है, वह मनोगत हो गयी है। विपर्यय एक मिथ्या ज्ञान है जो विषय से उस तरह मेल नहीं खाती जैसा वह है। अपने पूर्वाग्रह, ज्ञान, धारणाएं पहले से सूत्रबद्ध की हुई जानकारी एक ओर रख दो, और ताजी निगाहों से देखो। फिर से बालक बन जाओ। ऐसा क्षण-प्रतिक्षण करना पड़ता है क्योंकि हर क्षण तुम धूल इकट्ठी कर रहे हो।
SR No.034095
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages467
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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