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________________ तो फिर क्या करे ? धर्म-सभाएं बन्द कर दें, शास्त्र-प्रबचन छोड दें? कीर्तन, नाम-जपन, सत्सग, प्रार्थनाएँ, नमाजे, चर्च-सविस समेट ले । प्रश्न बहुत तीखे हैं। कबीर को भी ऐसा ही लगा तो वह कह गया कि ' माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख माहीं; मनुमा तो चौविस फिरे, यह तो सुमिरन नाहीं । पर कबीर की यह चेतावनी भी जहा की तहा घरी रही और 'श्रवणभक्ति' अपने मुकाम पर उसी तरह दृढ है। मनुष्य को हरि-वचन सुनना अच्छा लगता है-भले ही वह इस कान सुने और उस कान निकाल दे । अभी तो वह बहुत जोरो से 'हरे राम, हरे कृष्ण' मे लगा है। बहुत जोरो से महावीर-सकीर्तन चला है । राम-कथाएँ अधिक जनप्रिय हुई हैं । मत्सग मे मन रमता है और रात निकल जाती है। फिल्मी सगीत की धर्म-कथाएँ सुननेवालो का जायका बढा रही है। श्रवण-परम्परा' ने नया विस्तार पाया है, वह अपने पुरजोश पर है-इसे तोड कर क्या लीजिएगा? बात तोडने की है भी नही, यदि कुछ है तो जोडने की ही है। यह खोजने की जरूरत है कि इतना सुन-सुन कर भी कान हमारे बहरे क्यो है ? बाहर से सुना भीतर तक पहुचता क्यो नही ? और उधर भीतर से उठती अपनी ही आवाज मनुष्य सुनता क्यो नहीं ? हर प्रादमी की प्रात्मा भीतर से कुछ बोलती है, हर घटना पर कुछ कहती है, सकेत देती है। अच्छे कामो को थपथपाती है और जिन कृत्यो से मनुष्य को बचना चाहिए उनसे बचने के लिए आगाह करती है। पर यह भीतर का श्रवण तो बन्द है। कैसी अजीब बात है कि मनुष्य बहुत श्रद्धा के साथ, निष्ठा के साथ अपने धर्म-वचन बाहर सुनता है और समझता है, कुछ तो पुण्य-लाभ उसे आ, लेकिन सुने हुए ये वचन उसके भीतर पैठते नहीं, उधर के तार तो स्टे पडे है । इस कारण श्रद्धापूर्वक जो सुनता है वह ऊपर-ही-ऊपर हवा में तैरता रहता है। जीवन में? ८३
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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