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________________ सुनने वाले को परम तृप्ति है। और अब हमारी यह 'श्रवण-भक्ति' धर्मप्रतिष्ठानो से बाहर निकलकर चौराहो पर आ गयी है, मैदानो मे छा गयी है, सडको पर फैल गयी है । बडे-बड़े जलसे होते हैं, धर्म-प्राण जनता जुडती है । स्वामीजी, पण्डितजी, प्रभु, उल्मा, मुल्ला, आचार्य आदि अपनीअपनी साधना के उद्भट विद्वान तपस्वी बडे प्रभावी ढंग से मनुष्य का असली धर्म मनुष्य को समझाते हैं और वह सारा-का-सारा सुनकर वह अपने को बडभागी समझता है । सन्त-वाणी को सर्वाधिक कानो तक ले जाने में इस युग को अत्यधिक सफलता हाथ लगी है। लेकिन जा कहा रहा है? क्या आपके मन में भी यह प्रश्न उठता है कि ये सारे हमारे धर्मप्रवचन, नीति-वचनो की घोषणा, नाम-स्मरण, प्रभ-सकीर्तन, धर्म-ग्रन्थो का पारायण इतना-इतना फैलकर भी जा कहा रहा है ? क्या हमारे ये कोटि-कोटि कान इन्हें अपने में समेट कर समाधिस्थ हो गये हैं ? उठता है यह प्रश्न आपके दिल मे ? कही ऐसा तो नही कि हमारे 'ब्रेन' के 'कम्प्यूटर' मे पेदा ही नही हो । जितना पहुंचाया है, झर जाता है, टिकता ही नही वहाँ कुछ। इधर से प्रवेश हुआ और उधर से चला गया। टेप में होता ह ऐसा-नयी ध्वनि भरती जाती है और पहले की ध्वनि इरेज होती जाती है, मिटती जाती है। पर मनुष्य इन दो आरोपो को कभी नही स्वीकारेगा । न तो उसका ब्रेन-कम्प्यूटर बेपेदा है और न उसके कान महज टेप रेकार्डर हैं। वह मानता है कि जितना उसके ब्रेन मे पहुचता है। वह सब टिकता है। अपनी इस मेधावी शक्ति के कारण ही तो मनुष्य अन्य प्राणि-जगत् की तुलना मे श्रेष्ठतम साबित हुआ है। जिस आत्मधर्म को वह सुन रहा है वह भी तो उसी ने खोजा है। बहुत खोज की है उसने । युग-युगो की साधना के बाद उसे आत्म-प्रकाश मिला है और वही आत्म-प्रकाश अपने-अपने धर्म के खेमो मे बन्द होकर वह बाट रहा है। जीवन में?
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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