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________________ है। यह एक अच्छा अभ्यास है, एक ऐसा व्यायाम जिसमे से गतिशील ऊर्जा पैदा हो सकती है। समझना यह होगा कि जो त्याग महज व्यक्ति से सबध रखता है-उसके शरीर, स्वाद, रुचि, अभिरुचि, परिवार और उसकी स्वय की आत्मतुष्टि के इर्द-गिर्द चक्कर काटता है, वह मनुष्य के जीवन को कितना छ रहा है ? उसके भोग-उपभोग की तृष्णा पर कितना अकुश ला रहा है ? वह सम्पूर्ण मानव-जीवन को खुशहाल बनाने में कितना सहायक है ? जरा गहराई में जाना होगा। सभवत त्याग के ये छोटे घेरे सरपट दौडने वाले भोग को नही पकड सकेंगे । त्याग का घेरा हमे बड़ा करना होगा, व्यापक बनाना होगा। त्यागो और फिर भोगो त्याग और भोग केवल सापेक्षिक ही नही, एक-दूसरे से अनन्याश्रित हैं। वे साथ चलेंगे और एक निश्चित अनुपात मे साथ चलेगे तो ही जीवन परिष्कृत होगा, जीवन जीया जा सकेगा, जीवन वरदान बनेगा, मनुष्य भीतर से मजबूत होगा, टटकर बिखरेगा नही । मनुष्य को यह सोचना ही होगा कि उसने जितना भोगा है, उससे अधिक उसने समाज को दिया है या नही? उसे यह धन लगनी चाहिए कि वह अपने उपभोग से अधिक समाज को वापस करेगा। पहले कुछ दे, फिर ले । एक ले तो दो लौटाये। महावीर और गाधी तो महा तपस्वी थे। उन्होने भोगा रत्ती-भर और त्यागा मन-भर । मै उस तपस्या की बात नहीं कर रहा, पर एक अतिसाधारण घर-गृहस्थी वाला जीवन भी मनुष्य को अहिंसा के रास्ते जीनाहो तो त्याग उसके लिए अनिवार्य है। त्याग उसके पुण्य-अर्जन, आत्मतुष्टि, आत्म-साधना का विषय नही है। त्याग भोग का एक अविभाज्य अग है। दोनो साथ-साथ ही चलेगे। मनुष्य के पास कोई विकल्प है नहीं। एक ही मार्ग है-'त्यागो और फिर भोगो' । अब आप कितना छोडे, कब छोडे और कैसे छोडे-यह तो आप ही तय महावीर
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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