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________________ क्योकि, जब वह अस्ना, अपने स्वभाव का, मनुष्य के कर्तव्य का, मनुष्य के साथ प्रकृति के संबध का, मनुष्य के साथ विश्व व विश्व के प्राणि-जगत् के संबध का, मानव-धर्म का और जीवन के उच्चादशों का विचार करता है तो उसे अपनी जीवन पुस्तक के कई पृष्ठ खारिज करने की बात समझ मे आती है । उसे लगता है कि उसे नये सिरे ने बहुत से नये सफे लिखने होगे । एक दोहरी जिम्मेदारी -- जिसे गफलत में लिख लिया, उसे मिटाना या सुधारना और जो अब तक नहीं लिखा जा सका उसे लिखना, अर्थात् जीवन की तर्ज बदलना । इसमे बहुत खतरा है । उसे बहुत-सी बातें, बहुत से काम जो वह कर रहा है, छोड देने होगे और कुछ ऐसे कष्ट उठा लेने होगे जिनसे वह अब तक कतराता आया है । इस झझट में मनुष्य पडना नही चाहता । यह बहुत पित्ता मारने की बात है, लालच से - स्वार्थ से जी हटाने की बात है, आरामदेह जिन्दगी को छोड़ कर मेहनत भरी जिन्दगी जीने की बात है, यश-प्रतिष्ठा-सम्मान के हिंडोले से उतर कर कडी जमीन पर चलने की बात है, समाज के बहते हुए प्रवाह से अलग हट कर चुपचाप माता कष्ट वाला जीवन जीने की बात है । इसलिए मनुष्य खुद अपने से ही कतरा रहा है, वह स्वयं अपनी जीवन - पुस्तक नही पढना चाहता । उसे बन्द रखने में हो वह अपना भला देख रहा है । मैं यहा मनुष्य को आरामतलब प्राणी घोषित नही कर रहा । उसने बहुत-बहुत कष्ट झेले । नभ, थल, जल की गहन गहराइयो मे गोते लगा कर वह बेशुमार रत्न खोज कर लाया है। मनुष्य के जीवन को उसने चारो ओर से देखापरखा है तथा बढिया जीवन जीने की कीमिया खोज-खोज कर लाया है । इसके लिए वह कृशकाय हुआ है, मर-मर कर जीया है और ऐसे मानवरत्नो के आगे मनुष्य सौ-सौ बार नतमस्तक है । आज भी जिस कष्टसाधना को समाज मान्यता देता है वह कष्ट मनुष्य अपना दीदा मारकर प्रसन्नतापूर्वक झेलता है। क्या बहुत से लोग एक-एक माह के उपवास नही कर जाते ? सूर्य की तपन मे धनी नही रमा जाते ? शरीर कष्ट उठा जीवन में ? ૪૧
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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