SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाप प्रसन्न है ! -- इसलिए कि मनुष्य ने उसे छिपने के लिए अपना हृदय ही सौंप दिया है । एक ऐसा किला जिसमे किसी और का प्रवेश नहीं हो सकता । मजा यह है कि पाप जिस गोद में जन्म लेता है, उसी गोद में अपना सिर छिपा पा रहा है, इससे अच्छा और क्या करिश्मा चाहिए ? मनुष्य को पाप से बचाने के लिए समाज ने बहुतेरे बन्धन लगाये है, बहुत से उपकरण खडे कर लिये है कानून है, व्यवस्था है, न्याय-विभाग है, दड-विधान है, लेकिन मनुष्य पाप से बचने के बजाय इन उपकरणो की पकड़ से बाहर होने की कला सीख गया है। कुछ अभागे नौसिखिए ही इनकी गिरफ्त मे आ जाते है, चतुर आदमी तो साफ बच निकलता है और अपना पाप खुद अपने ही पेट मे पचा जाता है । इस बचाव अभियान में मनुष्य के आला दरजे के दिमाग लगे हुए हैं, जो घिनौने हत्यारो को भी कानून की गिरफ्त से साफसाफ बचा ले जाते हैं और अपने इस चतुर धधे के कारण वे समाज के गणमान्य लोगों में गिने जाते हैं। मनुष्य की इस करामात पर पाप प्रसन्न है । जीवन में ? ३३
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy