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________________ हमने सारा वस्तु-ससार लाद दिया है। और मनुष्य स्वय इस पुण्य की रेल का शानदार मुसाफिर है। जिनके साथ वस्तु-संसार जुड़ गया है वे पुण्य की जयमाला लिये घूम रहे हैं और उनकी प्रशस्ति में वे भी लगे हैं, जिन्हें यह पुण्य उपलब्ध नहीं है । पाप-पुण्य की परिभाषा अब जरा पुण्य के परिप्रेक्ष्य में यह भी देख लें कि 'पाप' को हमने क्या गत बनायी है । मनुष्य की वस्तुहीनता, पदहीनता, अभाव, सासारिक कष्ट 'पापोदय' की सूची में जुड़ गये हैं । पापोदय न भी कहें तो दबी जबान से हम इसे भाग्यहीनता तो कह ही देते हैं। गरज यह कि सदभाग्य या पुण्य का प्रतीक पैसा है और दुर्भाग्य तथा पाप का प्रतीक दरिद्रता है। जो साधु जीवन जीता है, अपने चारो ओर लपझप करने वाली समृद्धि मे स्थितप्रज्ञ रहने की साधना करता है, निर्लोभ, निर्वैर, प्रेम तथा करुणा की आराधना करता है, अन्याय सहन नहीं करता, न्याय के लिए जीवन उत्सर्ग करता है और हर क्षण सदाचारी रहने की कोशिश करता है, ऐसे अलि साधारण जन का अभामा जीवन अप्रभावी है, क्योकि उसके पास पुण्याई नही है। अब इस तरह के कष्ट-साध्य जीवन की आकाक्षा कौन करेगा? मनुष्य की नयी पीढी निश्चित रूप से पुण्याई बटोरने में ही लगेगी, बल्कि लग चुकी है । दोनों हाथ लड्डू-पुण्य भी और सुख-सुविधा भी। हमारी स्वर्ग की कल्पना भी सम्पदा-आधारित है। वहां शरीर को आराम देने वाली सब वस्तुएं सहज उपलब्ध हैं और श्रम कुछ नही। यहां भी हमे ऐसी ही व्यवस्था चाहिये-वही पुण्याई जो सुख-सम्पदा, आराम, प्रतिष्ठा और वस्तु-भडार से जुडी हो । मरणोपरान्त भी हमे वही स्वर्ग चाहिये जहा करना कुछ न पडे और सारे ठाट-बाट, ऐशोआराम उपलब्ध हों। इस तरह लौकिक तथा पारलौकिक जीवन के लिए मनुष्य ने बहुत ही सरल मार्ग अपना लिये हैं। लोकिक जीवन पुष्य की छत्रछाया मे पोषित बीचमम?
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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