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________________ उसके जन्म से लेकर मरण तक विध गया है । कितना-कितना समय मनुष्य इन सब मे दे रहा है । लगातार धार्मिक अनुष्ठान चलते रहते हैं, जिससे जो बन जाए, जो निभ जाए। कितनी भक्ति, कितनी आराधना, कितनी साधना, कितना स्वाध्याय-हिसाब की मर्यादा मे आप इसे आक नहीं सकेगे, लेकिन इतना करके भी मनुष्य के हाथ कितना आत्म-धर्म लगा? मुक्ति के कितने द्वार उसने खोले ? उलझने बढी या घटी उसका राम उसे मिला क्या? सभक्त आप ये प्रश्न उठाना नहीं चाहेंगे। धर्म की लोकमान्य लीक से हटना भी नहीं चाहेगे। मैं भी आपकी आस्था नही डिगाना चाहता। जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि आराधना, पूजा, भक्ति और साधना का प्रतीक हमारा यह सारा धर्म-व्यापार एक खोज है। मक्ति की खोज । हरेक को अपनी धर्म-विधि मे पक्काभरोसा है, इतना पक्का विश्वास कि उसे दूसरे की धर्म-विधि पाखण्ड लगती है। हम देख रहे है कि धर्म अनेक हैं, उनकी शाखा-प्रशाखाएं अनन्त हैं, कई जातिया और उपजातिया है, सब के अलग-अलग विधि-विधान हैं, और हरेक का दावा है कि उसका रास्ता ही एकमात्र मुक्ति का सही-साठ रास्ता है । मुक्ति की इस साधना मे एक शक्तिशाली परम्परा और है-'सन्यासधर्म' । अपनी सासारिकता के साथ जुड़े हुए धर्माचरण से मनुष्य को सतोष नही है। उसे लगता है कि बहुधधी रहते हुए जो धर्माचरण वह कर पा रहा है वह अपर्याप्त है और मुक्ति की कठिन चढाई वह तभी चढ सकेगा जब कि वह साधु-सन्यासी बन जाए। इसका भी शास्त्र है। विधिविधान है। ग्रेडेशन है-श्रेणिया हैं। धर्म किस्म-किस्म के तो साधु भी किस्म-किस्म के । उनकी वेश-भूषा भी अलग-अलग । कोई गेरुए मे है, कोई श्वेत वस्त्रधारी है, किसी के हाथ मे दण्ड है, किसी के हाथ मे कमडलुपीछी-पादरी, विशप, आर्कविशप, महायोगी, ध्यानयोगी, एल्लक, छुल्लक, मुनिराज, आचार्य आदि कई ग्रेडेशन हैं। कोई भगवान है, तो कोई महावीर
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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