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________________ मंदिरो की रचना की है, मसजिद और गिरजाघरो का निर्माण किया है। वह घटो पूजा-पाठ कर लेता है, कीर्तन-भक्ति मे रमा रहता है । उपवास-व्रत मे लग जाता है । भत दया की बात करता है । पशु-पक्षियो के लिए भोजन जुटाता है । लाचार मनुष्यो की सेवा के लिए उसने सामाजिक संस्थान खोले हैं । वह सेवक है, भक्त है, पुजारी है,उपासक है, विनम्रता ओढे हुए है, छोटे-छोटे त्याग साधता है, दयालु है, करुणा पालता है और प्रेम सजोता है। पर यह सब कुछ उसका व्यक्तिगत ससार है-आत्मसतोष के महज उपकरण । वहा वह धर्माल है, धर्मभीरु है। लेकिन जब वह समाज-जीवन मे प्रवेश करता है और उसका अधिकाश समय समाज-जीवन मे ही व्यतीत होता है, तब वह व्यापारी है, राजनीतिक है, सत्ताधीश है, धनपति है, सोषक है, स्वार्थी है, अहकारी है, उसकी सारी बुद्धि, सारी युक्ति अधिकाधिक पाने और स्वार्थ-साधना मे लगती है। परिणाम यह है कि मनुष्यो में एक हायरआरकी श्रेणिबद्धता खडी हो गयी है। आप बहुत मजे-मजे मे दीन-हीन-कगाल, निर्वसन और निराहार मनुष्य को नीचे की सीढी पर देख सकते है-बिलकुल दिगम्बर-त्याग के कारण नही, लाचारी के कारण । और उच्चतम सीढी पर वैभव मे लिपटे हुए समृद्ध मनुष्य को देख सकते है जो अपने ही ऐश्वर्य और मद मे मदहोश है । मनुष्य की इस हायरआरकी ने मनुष्य को प्राय समाप्त ही कर दिया है । गाधी ने अच्छी तरह पहचाना कि मनुष्य की ये दो समानान्तर रेखाएँ इसे मनुष्य रहने ही नही देगी। ऐसे में उसकी निजी नम्रता और भक्ति, त्याग और सयम भी उसे अहकारी ही बनायेगा । इसलिये उसने मनुष्य को इस खडित जीवन से बचाने की साधना की, मनुष्य को मनुष्य रहना है तो उसे साबित बनना होगा । जैन लोग तो खडित प्रतिमा को नमस्कार महावीर
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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