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________________ चाह ने मनुष्य को एक अच्छा खासा लडाकू-खंखार प्राणी बना दिया है । यो उसके पास न सिंह की गर्जना है, न इतने पैने दात कि किसी को फाड खाए, न तेज नाखून वाले पजे, न विषधर का विष-शरीर मे बहुत कम ताकत बची है, लेकिन उसने अपना जीवन जीने के लिए जिन उपकरणो को साधा है, उनसे प्रकृति का सहार हो रहा है। अपने आपसी रिश्तो मे भी उसने जिन उपकरणों का सहारा लिया है, वे उसे ही तोड रहे है । इसान ही इसान को काट रहा है । वनमानुषो, कबरबिज्ज्ओ या अन्य हिंसक प्राणियो के हमलो से तथा सापो के डसने से आखिर कितने मनुष्य मरते हैं ? हजार-हजार गुना अधिक मनुष्य तो आदमी के हत्याकाडो से, सग्रहवृत्ति से, भुखमरी से, आगजनी से, युद्धो से और राजनैतिक क्ररताओ से मर रहे है । शायद हमारा ध्यान इस पर गया ही नही कि प्रकृति के दोहन मे, अपने उपभोग की बेशुमार सामग्री के निर्माण मे और अपने आरामदेह उच्च जीवन-स्तर की प्राप्ति में जिन उपकरणो को साधनो को फैलाफैला कर पूरी सृष्टि को पाट दिया है, वे प्रकृति के भयकर विनाश के कारण बन गये । दूसरी ओर हमने अपने बचाव के लिये जो किलेबद। आपसआपस में की है वह भी पूरी तरह हिंसा से जुड़ गई है । हमारे स्वार्थ और अकार ने घृणा, द्वेष, वैर और क्रूरता की फौज खडी की है । जिसने करुणा और प्रेम का रास्ता रोक लिया है । बेचारी अहिसा मदिरो में दुबक गयी या रसोईघर में जा छिपी । व्रत-उपवास और पूजा-पाठ के चोले मे वह aa तक मगन बैठी रहेगी उसे तो बाहर निकलकर सम्पूर्ण सृष्टि की धमनियों में प्रवेश करना है । 1 ? महावीर की अहिंसा का सीधा संबध सह-अस्तित्व (को-एक्जिस्टेस ) सेहे । 'जोओ और जीने दो ।' अहिंसाधर्मी कहता है कि मैंने यही रास्ता तो पकड़ा है । हत्या करता ही नही । मेरी सभ्यता में तो हाथापाई भी वर्जित है । आखो देखते मुझसे न मच्छर मारा जाएगा, न चीटी । मेरी १२४ महावीर
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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