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________________ हो, कुछ दिन आप निराहारी रह जाएँ, कुछ व्रत-उपवास रख ले, खाने-पीने के सयम पाल लें-यह तो सारा नेति नेति है। इतना-सा अहिंसा-धर्म महावीर का नही है, लेकिन इससे आगे हम नही बढ पाये। उन्होने अनेकान्त की दृष्टि इसलिए देनी चाही थी कि मनुष्य अपनी अहिंसासाधना मे सहिष्णु बने, सवेदनशील बने, अपना 3 हकार छोडे, सह-अस्तित्व को समझे-आप भी रहे और मैं भी रहूँ। मै ऐसा कुछ नहीं करूँ कि आपकी हस्ती मिटे और आप भी ऐसा कोई काम न करे कि मैं बुझ जाऊँ। यह जो सृष्टि का सम्पूर्ण प्राणि-जगत् है-वनस्पति से लेकर कीट-पतग, पशुपक्षी और मनुष्य तक फैला है वह सब सह-अस्तित्व की परिधि में है। मनुष्य का आत्म-धर्म इन सबसे जुड़ा है। हमारी अहिंसा महज जीव-हत्या का परहेज करके चुप बैठ जाए तो यह आत्म-धर्म हाथ कैसे लगेगा। अहिमा के इस गतिरोध को समझने की जरूरत है। हम बहुत-सी बाते मही करके मानते है कि अहिंसा जी रहे हैं-पर यह मार्कटाइम हैवही के वही पैर पटकना है। हमारा सारा रसोईघर का अहिंसा-आचरण और मन्दिर का पूजा-पाठ या दान-धर्म की करुणा ऐसा अभ्यास है जो अहिसा को आगे नहीं बढाता | जिन मजिलो पर उसे सरपट दौडना है वहा वह घटने टेके खडी है । बल्कि, मैं कहूँ कि लडखडा रही है तो अतिशयोक्ति नहीं होग।। अहिंसा का पुजारी अपनी ही पकड से बाहर है। हिंसा के जिन उपकरणो से उसने निजात पायी थी, वे लौटकर उसके ही भीतर बस गये हैं। सर्वाधिक शक्तिशाली उपकरण 'स्वार्थ' को ऑल एन्ट्री पास मिल गयाहे-बे रोक-टोक सब जगह पहुचने का अनुमति पत्र । हिंसा के इस अ ले उपकरण ने ऐसा करिश्मा दिखाया है कि अहिंसा सौ-सौ कदम पोछे हट गयी है। हम देख रहे है कि इतमीनान से हिंसा की पलटन-- घृणा, ईर्ष्या, बैर, तृष्णा आदि की 'परेड' होती रहती है और अहिंसा मौन है। अहिंसा के गतिरोध में एक मोरचा 'अहकार' ने सम्हाल लिया है। महावीर जानते थे कि मनुष्य का महकार अहिमा का रास्ता रोकेगा। जीवन मे?
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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