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________________ भव्य प्रतिमाएँ और उनके कलापूर्ण आवास मन्दिर 'परिग्रह' का एक ऐसा बोझ है जिसे हम सब मिलकर सामूहिक रूप से ढो रहे है और शायद आगे भी ढोते चले जायेगे । परम भगवान महावीर के २५०० वे निर्वाण-वर्ष के इस अंतिम चरण मे हम यह महा-पराक्रम कर सकते है । जो करणा सगमर्मर की पाषाण प्रतिमा को सौपी है वह हमारे दिल में उतरे, जो समाधान प्रस्तर मूर्तियो के चेहरो पर छाया है वह हमे नसीब हो जाए, जो वीतरागता मृतियो का भामंडल बन गई है वह पाने के लिए हमारा मन तैयार हो जाए, सतोष की जो मुसकराहट इन पाषाण-प्रतिमाओ पर खेल रही है वह हम सब भक्तो के हृदय मे फैल जाए। यह सब सभव है, बशर्ते कि हम अपने मदिरो को बाहर और भीतर के नार्म को जोडने की वर्कशाप कर्मशाला बना दे । ऐसा करने का साहस हममे आ जाए और हम कर लें यह काम तो यह हमारी सबसे बडी वीर-परिनिर्वाण की आराधना होगी । यह कितना तीखा व्यग है कि हमारी निर्वसना परम वीतरागी सौम्य और भव्य भावना की धारिणी प्रतिमाएँ हमारे दिलो को तो नही छू पा रही लेकिन चुराये जाने की महज एक वस्तु बन गई है । काश, हमने अपने को तराशा होता तो एक नया मनुष्य इस युग को मिलता और वह सारा चेतन तत्त्व जो मनुष्य ने सगमर्मर को दे दिया है, उसका अपना होता और वह जड बनने से बचता । जीवन मे ? Oo १०७
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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