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________________ मनुष्य एक बडा मूर्तिकार है-प्रकृति उसके हाथ मे घडी की हर टिक् के साथ एक प्रतिमा सौंप रही है, लो इसे घडो। जिस भव्य, सौम्य और सम्यक् मूर्ति के दर्शन तुम अपने तीर्थों में करना चाहते हो वहीं भव्यता, सौम्यता और सम्य तत्व इस प्रतिमा को दे सकते हो तो दो। पर इन चेतन प्रतिमाओ को समाज की आपाधापी, घ्रणा-द्वेष, हिंसा-झूठ और लूट-खसोट को सौपकर हम कोई बढिया धवल सग-मर्मर ढूंढ रहे हैं, चमकदार स्फटिक इंढ रहे हैं और छाट रहे है कि अच्छा महावीर किस पत्थर मे से बनेगा। इस तरह हम अपनी सारी करुणा, अपना सारा त्याग, धैर्य, क्षमा, निर्वैरता, सत्य, अहिंसा और वीतरागता मनोयोग से तराशी हुई प्रतिमाओ को देकर अपनी झोली में सारी दुनियादारी, भोगउपभोग की सामग्री और तृष्णा, क्रोध, भय, हिंसा आदि का बोझ लेकर सी-सा (वजन के तोल से ऊपर-नीचे झूलनेवाला बच्चो का एक खेल) मे लगे है। हमे रोज-रोज वीतरागता के दर्शन का लाभ मिल रहा है और साथ ही साथ अपने-अपने राग मे जी-भर कर तैरने का आनन्द भी बना हुआ है। 'सी-सा' का यह खेल निरन्तर चल रहा है। हजारो साल से हमे जो विरासत अपने तीर्थों की, मन्दिरो की, भव्य से भव्य प्रतिमाओ की मिली है, वह सारा खजाना छोटा पड गया है। इधर गृहस्थ का मन कहता है कि मन्दिर और मूर्ति की इस लम्बी शृखला मे मै कुछ और जोड दूं, और वह अपनी सम्पूर्ण श्रद्धा लेकर, अपने तपस्वी ऋषि-मुनियो का आशीर्वाद पाकर फिर-फिर किसी पाषाण की खोज मे निकल पड़ता है। उसकी सारी शक्ति पाषाण को आकार देने मे और ईट-चूने की भव्य इमारत बनाने में लग जाती है। मूर्ति तैयार है, मन्दिर तैयार है, पचकल्याणक प्रतिष्ठा हो रही है और अपने रचे वीतरागी प्रस्तर महावीर का मा-बाप बनने मे उसे अनोखा सुख मिल रहा है। लीजिए हमारी प्रतिमा-परम्परा और आगे बढ गयी । विरासत में कुछ मन्दिर और जह गये। एक अजीव माइरेज-मगतृष्णा । १०४ महावीर
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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