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________________ उनसे सुशोभित है । इन मूर्तियों के लिए हम ढूंढ-ढूंढ कर पाषाण, रग-बिरंगे सगमर्मर, स्फटिक आदि लाए हैं और हमारे सग-तराशो ने बड़े मनोयोग से उन पर अपनी छैनिया चलायी है । चिकने-खुरदरे पत्थरो पर करुणा, शान्ति, धैर्य, समता आदि सम्यक भावो को उतार लाने में उन्हें गजब की सफलता मिली है। एकदम सजीव प्रतिमाएँ - बोलती कुछ नही, लेकिन मनुष्य अपने भीतर जिन गुणो की खोज में लगा है, वे सब प्रतिमाओ के चेहरो पर उभर आये है। बिना बोले ही वे कुछ कहती है मनुष्य से । अपने-अपने प्रभु के सामने खडा मनुष्य श्रद्धा के साथ उस अबोली वाणी को सुनता है और आत्मविभोर होता है । हमारा मूर्ति प्रेम फिर भी हमे समाधान नही है । इतने इतने पावन तीर्थों का, मदिरो का, गिरजाघरो का और लाखो लाख प्रतिमाओ का मालिक मनुष्य नयीनयी मूर्तियो की रचना में लगा ही हुआ है। बल्कि एक होड बदी है, कौन कितना भव्य, विशाल, कलापूर्ण मंदिर खड़ा करता है । कितनी सुन्दर मनमोहनी मूर्ति विराजमान करवाता है ।। शताब्दिया आती है और हम दौड लगाने लगते हैं । अब तो हमारा प्रतिमा- प्रेम इतना उमडा है कि हमारी छैनिया महापुरुषों की भी मूर्तिया उगलने लगी हैं । तीर्थंकरो और भगवानो से उतर कर हम नेताओ के चरणो मे नत मस्तक है । चौराहे चौराहे पर गाधी, जवाहर, विवेकानन्द, टैगोर, शिवाजी, अम्बेडकर, पटेल आदि महापुरुष खडे हो गए हैं । एकदम खुले मे धूप - वर्षा - सर्दी साधना कर रहे है । इनके चारो ओर अपनी ही उधेड़-बुन मे चक्कर काटता मनुष्य कभी तो इनसे प्रेरित होगा || इधर महावीर के २५०० वे निर्वाण वर्ष मे हमारी श्रद्धा में तूफान आ गया है और हम मुक्त मन से फिर उसे घडने लग गये हैं । हजारो जीवन मे ? १०१.
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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