SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहे हैं कि अगणित छोटी-छोटी हिंसाओ से मनुष्य घिरा हुआ है। उस बोझ को ढोते-ढोते बहुत बौना हो गया है और टूट गया है। एक ही मनुष्य का एक भाग अहिंसा और प्रेम की बात करता है और उसी का दूसरा भाग जमकर शोषण मे और अन्याय में लगा है-खूब अहकार और वैर फैला रहा है। सम्पूर्ण मानव जाति हिंसा के उपकरणो को लेकर जी रही है-फौज, पुलिस, भय, दड, जेल, लाचारी और क्रूरता। महावीर को शरीर-हिंसा (फीजिकल वायोलेन्स) की कभी चिता नही रही। मनुष्य की आकाक्षाओ मे पनपनेवाली छोटी-छोटी अनन्त हिंसाओ के मुकाबले बूचडखाने की हिंसा बहुत छोटी चीज है। महावीर मनुष्य को भीतर के सैलाब से बचाना चाहते थे और इसीलिए उन्होने अपनी अहिंसा को 'अपरिग्रह' का आधार दिया, ताकि मनुष्य अपने भीतर उगनेवाली छोटी-छोटी हिंसाओ से बच सके। भीतर की हिसाओ से बचेगा तो बाहर की हत्याये, युद्ध, कसाईखाने अपने-आप समाप्त हो जायेगे। लेकिन महावीर का यह अपरिग्रह-तत्त्व हमारी आख से ओझल है। यो साधुओ ने और श्रावको ने भी बहुत-कुछ छोडा है और रोज-रोज छोडने का ही अभ्यास कर रहे हैं। लेकिन जैसे केवल हिंमा न करने से अहिंसा नही सधती, वैसे ही वस्तुओ को बाहर से छोड देने से अपरिग्रह भी नहीं सधता। अपरिग्रह का सीधा सम्बन्ध वस्तु से नहीं, वस्तु से लिप्त होने से है। हम सब जानते हैं कि छोड-छोड कर भी हम कितने-कितने लिप्त हैं। अधिकाधिक लिप्त होते ही जा रहे हैं। सादा-मरल जीवन प्रतिष्ठित नही है। मेहनत से कमाई सूखी रोटी लाचारी है, समाधान नहीं, वस्तुहीन मनुष्य पर वस्तु न होने की चिन्ता का अधिक बोझ लदा है। हमारा सारा प्यार, सम्मान, नेह और आदर 'त्याग' के पक्ष में पहुंचना चाहिए था, पर वह बटोरने वाले की गोद मे ही जा रहा है। मनुष्य की आखें वही टिकी हैं, जहा वैभव है, अधिकार है। जीवन मे?
SR No.034092
Book TitleMahavir Jivan Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManakchand Katariya
PublisherVeer N G P Samiti
Publication Year1975
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy