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________________ और समझता है अनात्म। वह (अपने) मन को उन धर्मो (=विपयो) की ओर जाने से रोकता है। अपने मन को उन धर्मों की ओर जाने से रोक कर वह उस अमृत-तत्व की ओर ले जाता है जो कि "शान्त है, श्रेष्ट है, नभी सस्कारो का शमन है, सभी चित्तमलो का त्याग है, तृष्णा का क्षय है, विरागस्वस्प तथा निरोध-स्वरूप निर्वाण है।" वहा पहुँचने से उसके आश्रवो का क्षय हो जाता है। __ और यदि आश्रव-क्षय नही भी होता, तो उसी धर्म-प्रेम के प्रताप से पहले पाँच बन्धनो का नाश कर अयोनिज देवयोनि मे उत्पन्न (-औप-. पातिक) होता है। वही, उसका निर्वाण होता है-फिर उस लोक से लौट कर ससार में नहीं आता। भिक्षुओ, भिक्षु एक दिशा, दूसरी दिशा, तीसरी दिशा, चीथी दिशा, ऊपर, नीचे, तिर्छ, हर जगह, हर प्रकार से, सारेके सारे लोक के प्रति, विपुल, महान्, प्रमाण-रहित, निर्वैर, निष्कोव मंत्री-चित्त वाला, करणा-पूर्ण चित्त वाला, मुदिता-युक्त चित्त वाला और उपेक्षा-युक्त चित्त वाला हो विहरता है। वह सव स्प-सजाओ को पार कर प्रतिघ-सज्ञाओ को अस्त कर, नानत्व सजा को मन से निकाल 'आकाश अनत है' करके आकाशानन्त्यायतन को प्राप्त हो विचरता है। 'आकाशानन्त्यायतन को पार कर 'विज्ञान अनत है' करके विज्ञानानन्त्यायतन को प्राप्त हो विहरता है। विज्ञाणानन्त्यायतन को पार कर 'कुछ नहीं है' करके आकिञ्चन्यायतन को प्राप्त हो विहरता है। जो वेदना, सञ्चा , सस्कार, तया विज्ञान है, वह उन सभी धर्मो को अनित्य समझता है, दुख समझता है, रोग समझता है, फोडा समझता है, गल्य समझता है, पाप समझता है, पीडा समझता है, पर समझता है, नष्ट होने वाला समझता है, शून्य समझता है और समझता है अनात्म। वह (अपने) मन को उन धर्मों की ओर जाने से रोकता है। अपने मन को उन धर्मों की ओर जाने से रोक कर वह उस अमृत-तत्व की ओर ले जाता है जो कि 'शान्त है, श्रेष्ठ है, सभी सस्कारो का शमन है, मभी
SR No.034090
Book TitleBuddh Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahasthavir Janatilok
PublisherDevpriya V A
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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