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________________ १७ दुख का निरोध है, रोगो का उपगमन है, जरा-मरण का अस्त होना है । यह जो वेदना का निरोध है, सज्ञा का निरोध है, सस्कारो का निरोध है, तथा विज्ञान का निरोध है, उपशमन है, अस्त होना है, यही दुख का निरोध हैं, रोगो का उपगमन है, जरामरण का अस्त होना है । यही शान्ति है, यही श्रेष्ठता है, यह जो सभी सस्कारो का शमन, सभी अ. ३-३२ चित्त- मलो का त्याग, तृष्णा का क्षय, विराग-रवरूप, निरोधस्वरूप निर्वाण हे | भिक्षुओ, जिसका हृदय राग से अनुरक्त है, द्वेष से दूपित है, मोह से अ ३-५२ मूढ है, वह ऐसी बाते सोचता है, जिससे उसे दुख हो, वह ऐसी बाते सोचता है जिससे औरो को दुख हो, वह ऐसी बाते सोचता है जिससे उसे तथा औरो को — दोनो को दुख हो । उसको मानसिक दुख तथा चिन्ता रहती है । लेकिन, भिक्षुओ, जिसका हृदय राग से मुक्त है, द्वेप से मुक्त है, मोह से मुक्त है, वह ऐसी बाते नही सोचता, जिससे उसे दुख हो, वह ऐसी बाते नही सोचता जिससे औरो को दुख हो, वह ऐसी वाते नही सोचता जिससे उसे तथा औरो को दोनो को दुख हो । उसको मानसिक दुख तथा चिन्ता नही होती । इस प्रकार भिक्षुओ आदमी जीते जी निर्वाण को प्राप्त करता है, जो काल से सीमित नही, जिसके वारे में कहा जा सकता है कि 'आओ और स्वय देख लो', जो ऊपर उठाने वाला है, जिसे प्रत्येक बुद्धिमान् आदमी स्वय प्रत्यक्ष कर सकता है । भिक्षु जव शान्त-चित्त हो जाता है, जव (वन्धनो से ) विल्कुल मुक्त हो जाता है, तब उसको कुछ और करना वाकी नही रहता । जो कार्य्य वह करता है, उसमे कोई ऐसा नही होता, जिसके लिए उसे पश्चात्ताप हो । जिस प्रकार एक घन - पर्वत को हवा तनिक नही हिला पाती उसी प्रकार जितने भी रूप, रस, शब्द, गन्ध, स्पर्श तथा अनुकूल वा प्रतिकूल विषय है, २
SR No.034090
Book TitleBuddh Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahasthavir Janatilok
PublisherDevpriya V A
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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