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________________ - १३ - हिन्दी रूपान्तर देना ही चाहिये' सोच मैने पहले उन सब पालि उद्धरणो को नागरी अक्षरो मे लिखा, जिनसे महास्थविर ज्ञानातिलोक ने जर्मन और अग्रेजी मे अनुवाद किया था। फिर मूल पालि से उनका हिन्दी अनुवाद किया। जर्मन से मै अनुवाद कर न सकता था, और एक ऐसे सग्रह का जिसका मूल पालि मे हो, अग्रेजी से अनुवाद करते लज्जा आती थी। हमारे अपने देश की भापा हो पालि, और हम उसका हिन्दी रूपान्तर देखे अग्रेजी के माध्यम द्वारा। अनुवाद मे मैने जत्दी नही की, जल्दी कर भी न सकता था। पुरानी बात को आज की भाषा मे कहना सरल नही जान पडा। फिर भी मैने अपनी ओर से कोशिश की कि मूल-पालि से भी चिपटा रहूँ ताकि केवल आजकल की भापा की धुन मे मूल-पालि के भाव से विल्कुल दूर न जा पईं और आजकल की भापा से भी चिपटा रहूँ, जिसमे अनुवाद विल्कुल ‘मक्खी पर मक्खी मारना' न हो जाय। अपने उद्देश्य मे कहाँ तक सफल हुआ, इसका मै स्वय अच्छा निर्णायक नहीं समझा जा सकता। अनुवाद कर चुकने पर भाई जगदीश काश्यप जी के साथ सारा अनुवाद दुहरा लिया गया। उनकी सलाहो के लिए उन्हे धन्यवाद देते डर लगता है । अपने आपको कोई कैसे धन्यवाद दे ? पाठक कही कही कोष्ठक में एक दो शब्द देखेगे, वे शब्द कोष्ठक मे इसलिए जोड दिये गये है कि उनसे विपय स्पप्ट हो जाय और वे शब्द मुल-पालि के भी न समझे जाये। त्रिपिटक मे से जिस जिस स्थल से मूल-पालि के उद्धरण चुने गये है उन सब का सकेत उद्धरणो के आरम्भ मे किनारो पर दे दिया गया है - म-मज्झिम निकाय स-सयुत्त निकाय दीदीर्घ निकाय
SR No.034090
Book TitleBuddh Vachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahasthavir Janatilok
PublisherDevpriya V A
Publication Year
Total Pages93
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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