SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 466
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ જ वृहत् पूजा-संग्रह लखावे ॥ भ० ॥ २ ॥ वर्ण गन्ध रस स्पर्श सभी ये, , । पुद्गल गुण खासा | जब तक है संसारी जीवन, तब तक भोग की आशा ॥ भ० || ३ || खान पान रस भोग विघन से, अन्तराय बंध जाता । अन्तराय उदये मन वांछित, वस्तु जन नहीं पाता ॥ भ० ॥ ४ ॥ भोग के साधन सन्मुख होते, चाह हृदय में रहते । काम न होता होती अरुचि, परवशता दुख सहते || भ० ॥ ५ ॥ प्रभु पूजा अन्तराय निवारे, सुर नर सुख विस्तारे । सद्गुरु संग रंग अविनाशी, आत्म रमरणता धारे ॥ भ० ॥ ६ ॥ योग विधन प्रकृति कट जाती, योग निवृत्ति होते । आतम गुण रसणी गति उत्तम, मोती में मोती पोते ॥ भ० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र करो प्रभु पूजा, भोग विवन मिट जावे । आतम भोगी योगी जगमें, यश कीरति रति पावे ॥ भ० ॥ ८ ॥ sho || काव्यम् || स्फूर्जत्सुगन्ध विधिनोर्ध्वगति प्रयाणे० | मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने अन्तराय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा ।
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy