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________________ ४५८ वृहत् पूजा-संग्रह (तर्ज-सुन सुन आवत सोहे हांसी रे, पानी में मीन पियासी) द्रव्य मात्र अधिकारी रे, रो जल पूजा मल हारी ॥ टेर ॥ नीच भाव काटे जल धारा, कीच कलंक दे टारी रे॥क० ॥ १ ॥ प्यास बुझाती ताप बुझाती, करे तृपति सुखकारी रे ॥ २० ॥ २ ॥ स जीबन्द अमृत पद देती, प्रभु शुण समताकारी रे ॥ १० ॥३॥ नीच गोन कर्मोदय कटता, प्रसु पद की बलिहारी रे॥०॥४॥च गोत्र गंगाजल घट ज्यों, पूज्य रूप अबतारी रे ॥ १० ॥ ५ ॥ मदिरालय मदिरा घट जैसे, नीच साव निवारी रे || क० ॥ ६ ॥ अम्मकार समगोत्र करम है, उंच नीच घट कारी रे ॥ ० ॥ ७॥ उंचता धारो नीचता द्वारो, हरि कपीन्द्र जयकारी रे ।। क० ॥ ८॥ ॥ काव्यम् ।। लोकेपणाति तृष्णोदय वारणाय० । मन्त्र-ॐ ह्रीं श्रीं अह परमात्मने....' गोत्र कर्म न्समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा । ॥ द्वितीय चन्दन पूजा ॥ ॥दोहा॥ "भले भुजंग लगे रहें, विष नहीं व्यापत अंग। यह गुण चन्दन को मिला, कर प्रभु पूजा संग ॥१॥
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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