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________________ ४२० वृहत् पूजा-संग्रह - ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र कुसुम वर भावे, आतम पूर्ण विकास करे। उत्तरोत्तर गुण थानक फरसे, आतम पहुँचे आप घरे । प्र० ॥८॥ ॥ काव्यम् ॥ चञ्चत्सुपञ्च वर वर्ण विराजिभिः । मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने "मोहनीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा। || चतुर्थ धूप पूजा || ॥दोहा ।। प्रभु सन्मुख धर धूप को, भावो एह विचार । करम धुआं उड़ते हुआ, गुण सुगन्ध विस्तार ॥१॥ प्रभु गुण पावन धूप से, धूपित आत्म प्रदेश । भाव निरामयता लहे, यहसद्गुरु उपदेश ॥२॥ (तर्ज-झट जाओ चंदन हार लाओ धुघट नहीं खोलुंगी) धूप पूजा करो भवि भावे, करम धुआँ उड जावे । मोह कर्म कराल कीटाण, स्वयं सब मिट जावे ॥ टेर ॥ पूजा कर वर भाव से, करो पाप पच्चश्वान । प्रत्याख्यानी चौकड़ी, मेटो चतुर सुजान रे ।। करम० ॥१॥ प्रत्याख्यान कषाय से, सर्व विरति हो घात । ध्रुव वन्धी अध्रुवोदयी, फरमावे गुरु ज्ञात रे ॥ करम० ॥ २ ॥ धूली रेखा क्रोध
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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