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________________ ४१८ वृहत् पूजा-संग्रह ॥ चं० ॥३॥ क्रोधादि अनन्तानुबन्धी, ये यावज्जीवन होते हैं । मिथ्यात्व इन्ही में होता है, उस को अब चकना चूर करो ॥ चं० ॥ ४ ॥ पर्वत रेखा साक्रोध मान, खम्भा पत्थर का सा होता। धन वंश मूलसी माया लोभ, कीरमची रंग का नाश करो ॥ चं० ॥ ५ ॥ जड़ चल जग जूठन पुद्गल की, ममता से आतम बहिरातम । जड़ चेतन भाव विवेक सार, अन्तर आतम पद आप धरो, ॥ चं० ॥ ६ ॥ तीर्थंकर कल्याणक विहार, भूमि तीरथ तारण हारे। तीर्थकर प्रतिमा के पावन, दर्शन से दर्शन प्राप्त करो ॥ चं० ॥ ७ ॥ नित हरि कवीन्द्र प्रभु दर्शन से, प्रभुता जीवन में प्रकटाओ । आतम गुण घाती मोह करम को, दूर दूर कर विघटाओ ॥ चं० ॥८॥ ॥ काव्यम् ॥ पापोपतापशमनाय महद् गुणाय० मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अर्ह परमात्मने..."मोहनीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय चन्दनं यजामहे स्वाहा । ॥ तृतीय पुष्प पूजा ॥ ॥दोहा॥ पञ्च वरण के फूल से, प्रभु पञ्चम गतिमूल । - पूजो दर्शन योगते, मिटे अनादि भूल ॥१॥
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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