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________________ ४०० बृहत् पूजा-संग्रह । अ० ॥ ५ ॥ एकेन्द्रिय से तेईन्द्रिय तक, दर्शन होता राजिंदा । एक अचक्षु प्रभु दर्शन विन, खाते गोता राजिंदा ॥ अ० ॥ ६ ॥ प्रभु दर्शन पाया धन अपना, जीवन जानो राजिंदा । प्रभु दर्शन से पावन अपना, दर्शन ठानो राजिंदा ॥ अ० ॥ ७ ॥ प्रभु दर्शन पूजन में भावे नैवेद्य चाढो राजिंदा । हरि कवीन्द्र हो विजयी दर्शन, निज गुण गाढ़ो राजिदा ॥ ३० ॥ ८ ॥ ॥ काव्यम् ।। प्राज्याज्य निर्मित सुधा मधुर प्रचारैः । मन्त्र-ॐ हीं अहं परमात्मने.."दर्शनावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय नैवेद्य यजामहे स्वाहा । || अष्टम फल पूजा ।। ॥दोहा॥ फल पूजा फल त्याग कर, करो सदा मनरंग। शिव सुख फल पाओ तभी, सादि अनन्त अभंग ॥१॥ फल से फल होता यहां, देखो वर विज्ञान । प्रभुपद भाव अमोघ फल, पूजो विनय विधान ॥२॥ (तर्ज माढ़-मरुधर म्हारो देश म्हांने प्यारो लागेजी) म्हारे जीवन को आधार, प्रभुपद प्यारो लागेजी। जो है त्रिभुवन तारणहार, प्रभुपद प्यारो लागेजी ।।।।
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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