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________________ ३६० वृहत् पूजा-संग्रह हरि कवीन्द्र आतम दर्शन हो, परमातम सम्यग् दर्शन हो । चंदन पूजन योग भाव उपयोगी होता रे || आ० ॥ ५ ॥ || हरिगीत छन्दः ॥ तच्चार्थ के श्रद्धान से, हो भव्य सम्यग्दर्शनं, आधार उसका एक है, निज आत्म रूप सुदर्शनम् । दर्शन न आँखों का यहाँ है, हृदय दर्शन दर्शनं, जिनदेव दर्शन से मुझे हो, दिव्य सम्यग्दर्शनम् ॥ मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने अनन्तानन्त -- सम्यग्दर्शन शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय सम्यग्दर्शन प्राप्तये अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा । ॥ सम्यग् ज्ञान पद पूजा || ॥ दोहा ॥ सब संसारी जीव में, होता है संज्ञान | पर जो जाने आपका, उनका सम्यग्ज्ञान ॥१॥ आप रूप है आमा, पर कर्मों के योग । भूल सदा गति चार में, भोग रहा दुख भोग ॥२॥ बकरी टोले में रहा, सिंह बाल निजरूप | लखते सिंह पराक्रमी, हो जाता वन भूप ॥३॥ वैसे ही यह आत्मा, परमातम पद योग । आतम ज्ञानी हो करे, भव दुख भाव वियोग || ४ ||
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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