SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५८ वृहत् पूजा-संग्रह अनुकम्पा परधान । हरि कवीन्द्र आस्तिक आतम गुण, अमृत कीनो पान ॥ प्र० ॥ ५ ॥ ॥ दोहा ॥ निश्चय से व्यवहार से, एक अनेक सरूप | निजगुण समकित रत्न को, पाते हैं गुण भूप ॥१॥ दीपक से दीपक यथा, लट भँवरी के न्याय । आतम हो परमातमा, समकित शुद्ध उपाय ॥२॥ ( तर्ज - अम्विका विरुद वखाने हो० ) जिन शासन का सार यही है, जिन शासन का सार । समकित रत्न उदार यही है, जिन शासन का सार ॥ जिन दर्शन तें दर्शन प्रकटे, जिन निक्षेप चार। चारों सत्य बतायें स्वामी, ठाणांग ठाण विचार || यही० ॥ १॥ आचारांगे दुय सुखंधे, निरयुक्ति निरधार । तीरथ दर्शन वन्दन पूजन, दर्शन भाव आधार || यही० ॥ २ ॥ दर्शन मूरति श्री जिन मन्दिर, जिन प्रतिमा अधिकार | पंच कल्याणक भाव प्रकटते, हो दर्शन अधिकार || यही ० ||३|| आनन्दादिक परम उपासक, भाव प्रतिज्ञा धार | जीवन पावन सुविहित विधि से हो समकित साकार || यही० ॥ ४ ॥ I
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy