SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बृहत् पूजा-संग्रह ॥ राम गरखो || (तर्ज-सुण चतुर सुजाण, परनारी सुप्रीति कबहु नहीं कीजिये ) सुनिसुव्रत जिनेन्द्र सुनिजर घरी मुझपर वर दर्शन दीजिये । प्रभु दरश प्रीति निरुपाधिकता, करिये लहिये शिव साधकता | तब तुरत मिटे शिव बाधकता ॥ ० ॥१॥ अमृत में साध्य पणो विलसे, प्रभु दर्शन साधनता उलसे । तद् मुझने साधकता मिलसे ॥ मु० ॥ २ ॥ भिन्नाधि करणता यदि विघटे, एकाधिकरणता यदि सुघटे । तद् मुझे शिव साधकता प्रगटे || सु० ॥ ३ ॥ एकाधिकरणता मुझ करिये भिन्नाधिकरणता परिहरिये । शिवचन्द्र विमल पद वरिये ॥ सु० ॥ ४ ॥ १६६ ॥ काव्य ॥ सलिल० ॐ ह्रीं श्री प० श्रीमतमुनिसुव्रत जिने० ॥ ॥ एकविंशति श्रीनमि जिन पूजा || ॥ दोहा ॥ अंतर वैरी नमाविया, तब लहियुं नमि नाम | भविजन-ए प्रभु - पूजर्से, खरीये चंछित काम ॥
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy