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________________ - १७२ वृहत् पूजा-संग्रह सलूणा ॥ अ० ॥ १॥ भेद असंख कहे जिनवरजी, मूल भेद पर सार; सलणा। बड़माण हियमाण वखाणे, सूत्रे श्रीगणधार, स०॥०॥२॥ सुरनर तिरी सहु अवधि प्रमाणे, देखे द्रव्य उदार ; सलूणा । अवधि सहित जिनवर सहु आवे। थाये जग भरतार; स०॥०॥३॥ ज्ञान बिना नर मूढ कहावे । ढोर समो अवतार ; स०। ज्ञानी दीपक सम जग माहे पूजे सहु नरनार ; स० [अ०॥४॥ ज्ञानतणी महिमा जग माहे, दिन दिन अधिकी सार ; स० । मूलमंत्र जग वश करवाको, एहिज परम आधार, स० ॥ अ० ॥५॥ ज्ञाननी पूजा अहनिस करिये, लीजे बंछित सार, स० । ज्ञानने वंदी बोध उपायो, करम कलंक निवार, स० ॥ अ० ॥ ६॥ इत्यादिक महिमा भवि सुणके, पूजो अवधि उदार, स०। सुमति कहे भवि भाव धरीने, सेवो ज्ञान अपार, स०॥०॥७॥ ॐ ह्रीं श्री परमा० श्रीअवधिज्ञान धारकेभ्यः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥ || चतुर्थ ज्ञान पूजा ॥ केतकी भाव
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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