SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३४ वृहत् पूजा संग्रह ॥ सप्तदश समाधि पद पूजा ॥ ॥दोहा॥ सतरम पदमें सेविये, सहु सुख करण समाधि । जिन सेवनते भविकनो, गमे व्याधि अरु आधि । ब्रह्मनगर पथि विचरतां, वर पाथेय समान । ए समाधि पद जाणिये, सुरमणि किये हैरान ॥ ॥राग कहरवो ॥ (तर्ज-बाजे तेरा विछुआ रे वा० ) मेरो रे समाधि चरण वित बसियो, तसु गुण समरण कियो मनु वसियो । मे० ॥ सकल जगत जन जिनकुस्तवतुहे, अनुभवरंगे अतिहि विकसियो ।मे० ॥१॥ द्रव्यत भावत दुविध समाधि, सुरतरु मार्नु नित भुवन विलसियो । असन वसन सलिलादिक भक्ति, करिय संघनी करुणा रसियो ।। मे० ॥२॥ द्रव्य समाधि प्रथम ए सुणिये, कहो जिन लोकालोक दरसियो। सारण वारण चोयण प्रमुखे, पतित सुथिर करे ध्रममें हरसियो । मे० ॥ ३ ॥ भाव समाधि द्वितीय ए कहिये, जो करे सो जिन चुरण फरसियो। सकल संघको जो उपजावत, दुविध
SR No.034089
Book TitleBruhat Pooja Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshanashreeji
PublisherGyanchand Lunavat
Publication Year1981
Total Pages474
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy