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________________ ८८ अन्वयः । अष्टावक्र गीता भा० टी० स० शब्दार्थ | | अन्वयः । - दूर हो गई है faraniya: = 2 अज्ञानता जिसकी, ऐसा धीरधीः धीर पुरुष sat faraम् = इस विश्व को मायामात्रम् = माया- रूप शब्दार्थ | पश्यन् = देखता हुआ हिते मृत्य सन्नि | मृत्यु के आने अपि ( पर भी कथम् = क्यों त्रस्यति डरेगा || भावार्थ | यह जो दृश्यमान जगत् है, सो सब माया का कार्य है । और माया का कार्य होने से ही वह सब मिथ्या है । जो ज्ञानी उसको मिथ्या देखता है, वह फिर ऐसा विचार नहीं करता है कि कहाँ से ये शरीरादिक उत्पन्न होते हैं और नाश होकर किसमें लय हो जाते हैं । यदि ऐसा विचार करके वह मोह को प्राप्त होवे, तो वह ज्ञानी नहीं हो सकता है । जो विद्वान् अपने स्वरूप में अचल है, वह मृत्यु के समीप अपने पर भी भय को नहीं प्राप्त होता है ॥११॥ मूलम् । निःस्पृहं मानसं यस्य नैराश्येऽपि महात्मनः । तस्यात्मज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते ॥ १२ ॥ पदच्छेदः । निःस्पृहम्, मानसम्, यस्य, नैराश्ये, अपि, महात्मनः, तस्य, आत्मज्ञानतृप्तस्य, तुलना, केन, जायते ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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