SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८६ अन्वयः । अष्टावक्र गीता भा० टी० स० शब्दार्थ | धीर:- ज्ञानी पुरुष तु=तो भोज्यमानः = भोगता हुआ अपि =भी च=और पीड्यमानः = पीड़ित होता हुआ अपि-भी अन्वयः । सर्वदानित्य केवलम् = एक आत्मानम् आत्मा को शब्दार्थ | पश्यन् = देखता हुआ न तुष्यति न तो प्रश्न होता है + च=और न कुप्यति न कोप करता है || भावार्थ । ज्ञानी को शाक और कोप भी न होना चाहिए । ज्ञानी पुरुष लोकों की दृष्टि में विषयों को भोक्ता हुआ भी, और लोकों करके निन्दित और पीड़ा को प्राप्त हुआ भी, सर्वदा सुख-दुःख के भोग से रहित केवल आत्मा को देखता हुआ न तो हर्ष को और न कोप को प्राप्त होता है । क्योंकि तोष और रोष आत्मा में नहीं रह सकते हैं । यदि ज्ञानी में भी तोष और रोष रहें, तो बड़ा आश्चर्य है ।। ९॥ मूलम् । चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत् । संस्तवे चापि निन्दायां कथं क्षुभ्येन्महाशयः ॥ १० ॥ पदच्छेदः । चेष्टमानम्, शरीरम्, स्वम्, पश्यति, अन्यशरीरवत्, संस्तवे, च, अपि, निन्दायाम्, कथम्, क्षुभ्येत्, महाशयः ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy