SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७४ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० पदच्छेदः । मयि, अनन्त, महाम्भोधौ, चित्तवाते, प्रशाम्यति, अभाग्यात्, जीववणिजः, जगत्पोतः, विनश्वरः ।। अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।। अनन्त महाम्भोधौ अपार समुद्र-रूप अभाग्यात अभाग्य से मयि-मुझ विषे (जगत्-रूपी जगत्पोतः= 2 नौका अर्थात् at । शरीर प्रशाम्यति के शान्त होने विनश्वरः नाश हुआ है ॥ जीव-रूपी शब्दार्थ । चित्तवाते चित्त-रूपी पवन पर जीववणिजः- वणिक् के भावार्थ । जनकजी कहते हैं कि मुझ अनंत महान् में जब संकल्पविकल्पात्मक मन-रूपी वायु शान्त हो जाता है, अर्थात् जब मन संकल्पादिकों से रहित होता है, तब जीव-रूपी व्यापारी की शरीर-रूपी नौका प्रारब्धकर्म-रूपी नदी के क्षय होने पर नाश हो जाती है ।। २४ ।। मूलम। मय्यनन्तमहाम्भोधावाश्चर्य जीववीचयः । उद्यन्ति ध्नन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावतः ॥ २५ ॥ पदच्छेदः । मयि, अनन्तमहाम्भोधौ, आश्चर्यम्, जीववीचयः, उद्यन्ति, घ्नन्ति, खेलन्ति, प्रविशन्ति, स्वभावतः ।।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy