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________________ दूसरा प्रकरण । ६३ साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है, पर देखने में आता है और लोक भी कहते हैं कि हम बड़े दुःखी हैं ? उत्तर - निरञ्जन आत्मा को भी द्वैत भ्रम से दुःख प्रतीत होता है, वास्तव में वह दुःखी नहीं । प्रश्न - इस भ्रम रूपी महान् व्याधि की ओषधि क्या है ? उत्तर - जो द्वैत प्रतीत हो रहा है, यह सब मिथ्या है । वास्तव में सत्य नहीं है । वास्तव में सत्यबोध-रूप आत्मा ही है, ऐसा जो ज्ञान है, वही त्रिविध दुःख की निवृत्ति की ओषधि है, और कोई उसकी ओषधि नहीं है ।। १६ ।। मूलम् । बोधमात्रोऽहमज्ञानादुपाधिः कल्पितो मया । एवं विमृश्यतो नित्यं निर्विकल्पे स्थितिर्मम ॥ १७ ॥ पदच्छेदः । " बोधमात्रः, अहम्, अज्ञानात्, उपाधिः कल्पितः, मया, एवम् विमृश्यतः, नित्यम्, निर्विकल्पे, स्थितिः, मम ॥ अन्वयः । शब्दार्थ | अन्वयः । शब्दार्थ | अहम् = मैं बोधमात्रः = बोध-रूप हूँ मया=मुझ करके अज्ञानात् = अज्ञान से उपाधिः = उपाधि कल्पना किया गया है। कल्पितः= { एवम् = इस प्रकार नित्यम् = नित्य विमृश्यतः = विचार करते हुए मम=मेरा स्थितिः = स्थिति निर्विकल्पे = निर्विकल्प में है ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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